मां होना एक जैविक अनुभव है और मानवीय संवेदना का विस्तार करने वाली एक खूबसूरत भावना भी। जैविक रूप से प्रकृति ने केवल महिलाओं को यह सुविधा दी है कि वे एक नए जीवन को जन्म देकर इस संसार को उसे सौंप सकें। जो महिलाएं जैविक रूप से मां बनने की इच्छा रखती हैं, उनके लिए गर्भावस्था एक अनूठा उत्सव लेकर आती है। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं जहां गर्भाधान का यह अनन्य सुख लाखों-करोड़ों औरतों से उनकी कोमल संवेदनाओं और उनके ‘आत्म’ को छीन लेता है। कारण यह कि कहीं उन पर लड़का पैदा करने के लिए पितृसत्ता का दबाव है तो कहीं गोरा बच्चा पैदा करने की सामाजिक ‘बाध्यता’! इसमें पैदा होने वाले बच्चे के रंग को लेकर घर-परिवार से लेकर समाज तक की उत्सुकता एक खास मानस और ग्रंथि को दर्शाती है। यानी बच्चा पैदा हो तो गोरा हो। सांवला हुआ तो सबके चेहरे पर निराशा छा जाती है। सच यह है कि गोरे रंग को लेकर ‘सोशल कंडीशनिंग’ की शुरुआत भारत में गर्भावस्था से ही हो जाती है, जब महिलाओं को घर के बुजुर्गों द्वारा गोरा बच्चा पैदा करने के लिए नारियल खाने और केसर वाला दूध पीने की सलाह दी जाने लगती है। हमारे समाज की एक आम हकीकत यही है।

लेकिन कभी जातीय सफाए या संहार के लिए खबरों में रहने वाला मध्य-पूर्व अफ्रीका का देश रवांडा पिछले दिनों एक खास घटना को लेकर चर्चा में रहा। रवांडा ने भारी तादाद में रंग गोरा करने वाली क्रीम, लोशन, साबुन और ब्लीच उत्पादों को प्रतिबंधित कर दिया है। इनमें अधिकतर ऐसे उत्पाद शामिल हैं जिनमें शरीर की रंगत को हल्का करने वाला हाइड्रोक्वीनन रसायन और मरकरी मिलाया जाता है। इन रसायनों के इस्तेमाल से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को नुकसान पहुंचता है और अवसाद जैसी गंभीर समस्या भी हो सकती है। लेकिन बात केवल स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। अफ्रीकी देशों में रंग गोरा करने वाले उत्पादों की भारी मांग है लेकिन आज उनमें हालात इतने अधिक खतरनाक हो गए हैं कि गर्भवती महिलाएं गोरा बच्चा पैदा करने के दबाव में अपने पेट पर भी सफेदी की क्रीम पोतने को विवश हैं।

जैविक रूप से त्वचा की रंगत एक तटस्थ कारक है। लेकिन बात केवल सौंदर्य की नहीं है। जब हम सामाजिक और सामरिक कारकों की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि गोरा रंग आधिपत्य, प्रभुत्व और उपनिवेशवाद का प्रतीक है। भारत का संविधान किसी भी रूप में भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। बावजूद इसके व्यावहारिक स्तर पर यहां के समाज में गोरे-काले रंग का विभेद संस्थागत है। यहां रंगत समाज में आपकी स्थिति, पद और प्रतिष्ठा को बहुत गहरे प्रभावित करती है। काला-गोरा रंग, लंबा-छोटा कद, टेढ़े-तीखे नैन-नक्श या सुडौल-स्थूल शरीर- इन सब बातों को लेकर किसी समाज का असहज होना भारी चिंता का विषय है। आज हमारी पहचान वह बन गई है जो बाजार या समाज हम पर थोपता है। इस मकड़जाल से अमीर-गरीब और माध्यम वर्ग, सब समान रूप से प्रभावित हैं खासतौर पर स्त्रियां। खुद को आकर्षक तरीके से प्रस्तुत करना अच्छी बात है, लेकिन जब हम अपनी पहचान या चयन को बाजार के आधार पर परिभाषित करने लगते हैं तो मामला सच में गड़बड़ है। हमारे समाज में ये सब अवधारणाएं इतनी संस्थागत हो चुकी हैं कि आम आदमी अपनी पहचान को इन्हीं आधारों पर परिभाषित करता है। जो भी इन रेडीमेड खांचों में फिट नहीं बैठता, समाज में उनकी चुटकी ली जाती है, ‘बॉडी शेमिंग’ की जाती है यानी शरीर को निशाना बना कर शर्मिंदा किया जाता है।

गोरेपन के विज्ञापन यह विश्वास दिलाते हैं कि गोरा होने से आत्मविश्वास बढ़ता है, रंगत विवाह में बाधा नहीं बनती, प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, सुस्त कॅरियर में चार चांद लग जाते हैं। जबकि हकीकत कुछ और है। ऐतिहासिक रूप से पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि ‘सुर-असुर’ या ‘आर्य-अनार्य’ की संस्कृति मूल रूप से गोरे और काले के भेद पर टिकी है। हम बचपन में जिन दादी-नानी की कहानियों, लोक कथाओं और किंवदंतियों को सुन कर बड़े होते हैं। वे हमारे दिमाग की स्थायी स्मृति में अपना घर कर लेती हैं और काला रंग हमारे जेहन में हमेशा के लिए विपर्यय बन जाता है। ‘काला अक्षर भैंस बराबर’, ‘भैंस के आगे बीन बजाना’, ‘मुंह काला करना’ जैसे मुहावरे हमारे समाज की सामूहिक सोच का एक नमूना भर हैं। यही काम हमारी पाठ्य-पुस्तकें भी करती हैं जो काली त्वचा को कुरूपता या बदसूरत या विकृति की भंगिमा के रूप में पेश करती हैं।

रंग को लेकर यह हमारी यह सोच पूर्वाग्रह मात्र नहीं है। यह एक किस्म का सांस्कृतिक जुनून है और उससे भी अधिक यह नस्लवाद का एक रूप है। हमारी रंगत अक्सर समाज में हमारे पदानुक्रम को भी जाहिर करती है। बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रवांडा एक ऐसा देश है, जिसकी पहचान जातीय दंगों, गरीबी और भयानक कुपोषण से जुड़ी हुई है। लेकिन हमें रवांडा से सीखना चाहिए कि किस तरह महिलाओं की राजनीतिक या संसदीय भागीदारी सुनिश्चित की जाए और किस तरह अपने देश को साम्राज्यवाद और बाजारवाद के प्रयोगों का अड्डा न बनने दिया जाए। इच्छाशक्ति हो तो क्या नहीं किया जा सकता!