मेधा

अगर हम स्त्रियों पर होने वाली तरह-तरह की स्थूल और सूक्ष्म हिंसा के प्रति संवेदनशील हैं तो आप ‘एसिड अटैक’ यानी तेजाब के हमले के बारे में जरूर जानते होंगे। एसिड अटैक जैसी विशिष्ट किस्म की लैंगिक हिंसा या साफ शब्दों में कहें तो स्त्रियों के खिलाफ हिंसा भारतीय पितृसत्ता की ही विशेषता है। इस घृणित हिंसा पर केंद्रित एक फिल्म ‘छपाक’ हाल ही में आई थी। फिल्म से इतर इस कहानी के वास्तविक नायक और नायिका को भी सामाजिक रूप से सक्रिय लोग जानते होंगे। लेकिन इस फिल्म का महत्त्व इसलिए है कि वह हर किसी को समाज की नजर में ‘विकृत’ हो गए उस चेहरे को देखने के लिए मजबूर कर रही है, जिसे देखने और उस पर सोच-विचार करने की कवायद शायद ही की जाती हो। हां, कभी ध्यान आ जाने या नजर पड़ जाने से इस पर सोचने की कोशिश जरूर की जाती है।

किसी मनुष्य के मन का जहर इतना सांद्र कैसे हो जाता है कि वह तेजाब बन किसी के चेहरे पर फेंक दिया जाता है? आखिर इस कृत्य को करने वाले हमारे ही परिवारों में जन्म ले रहे हैं, हमारे ही समाज में पल-बढ़ रहे हैं। तो हम केवल इस फिल्म की एक अच्छी-सी समीक्षा कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते। स्त्री पर हो रही तरह-तरह की हिंसा, चाहे वह बहुत स्थूल हो या अति सूक्ष्म तरीके की- किसी भी तरह की हिंसा के बारे में सोचती हूं, तो स्तब्ध रह जाती हूं।

मनुष्यता को कलंकित करने वाली ये घटनाएं झकझोर कर रख देती हैं। तभी खयाल आता है कि आदिवासी और अन्य समाज, जिनके भाषा-संसार में बलात्कार, तेजाबी हमला जैसे शब्द ही नहीं हैं, आखिर वे समाज कैसे हैं? आखिर ये समाज अपने नौनिहालों की परवरिश कैसे करते हैं कि वे स्त्री को अपनी मिल्कियत नहीं समझ कर एक मुकल मनुष्य का दर्जा दे पाते हैं? और कितना अद्भुत है कि इन समाजों के मर्दों की सोच तक में दहेज-हत्या, तेजाबी हमला, बलात्कार जैसी मानवता के चेहरे को विकृत करने वाली हिंसा अस्तित्व ही नहीं रखती। कहीं इन प्रवृत्तियों की झलक देखी भी जा रही है तो वह उस समाज के मानस से अलग कहीं और से ‘प्रेरित’ लगती है।

यों मुख्यधारा के और सभ्य कहे जाने वाले समाजों में जनजातीय समुदायों को पिछड़ा हुआ माना जाता रहा है और हम खुद को विकसित कहते हैं। वे अनपढ़ और असभ्य माने जाते रहे हैं और हम खुद को सभ्य और सुसंस्कृत कहते हैं। और तो और, उन्हें सभ्य-सुसंस्कृत बनाने के एजेंडे के तहत दशकों से उनके जल, जंगल, जमीन छीन कर उन्हें कथित मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिशें हर सरकार करती रही है। न केवल स्त्री, बल्कि बच्चे किसी भी तरह से कमजोर व्यक्ति, पशु, प्रकृति पर अंधाधुंध हिंसा अगर विकास का अवश्यंभावी परिणाम है, तो आदिवासियों के ‘अविकसित’ कहलाने पर सवाल उठाना कितना उचित है?
बहरहाल, ‘छपाक’ फिल्म मनुष्यता के लांछन की ही नहीं है, बल्कि इसके सहज सौंदर्य की भी कथा है। नायिका के संघर्ष के साथ, उसके दुख-तकलीफ के साथ परिवार के साथ-साथ, उस स्त्री का भी निरंतर डटे रहना, जिसके यहां उसके पिता रसोइया थे- मनुष्यता के उजाले की कथा है। नायक का मुख्यधारा की पत्रकारिता को छोड़ तेजाब के हमले की शिकार पीड़िता महिलाओं के लिए काम करना जीवन के उज्ज्वल पक्ष को सामने रखता है, जिसे देख कर हमारे भीतर का भी इंसान थोड़ा संवेदनशील हो सकता है, कुछ सुंदर-सार्थक करने को प्रेरित हो सकता है।

लेकिन इस कथा का शिखर, उसके सौंदर्य का चरम है, दो व्यक्तियों के बीच वह ‘अबोला प्रेम’, जो अव्यक्त होते हुए भी अब तक अभिव्यक्त हर प्रेम से कहीं अधिक मधुर है। उसकी मधुरता, कोमलता जीवन की क्रूरता को सहने का अदम्य साहस बन जाती है और इसी अर्थ में उसकी नैसर्गिकता औदात्य में रूपांतरित हो जाती है। इस कहानी का नायक कुछ-कुछ ‘अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ के नायक जैसा नजर आता है। थोड़ा अक्खड़, जिद्दी और निराशावादी भी, लेकिन अपनी धुन का पक्का और आत्मविश्वास से भरपूर। उसका रूखा व्यक्तित्व दरअसल एक ढाल है, कठोर दुनिया से अपने संवेदनशील मन को छिपाने की।

सोचती हूं कि परदे पर उतारी गई इस कहानी की वास्तविक नायिका को किन तकलीफों और भावनात्मक जद्दोजहद से गुजरना पड़ा होगा, नायक के मन में किन वजहों से किस तरह के तूफानी बदलाव हुए होंगे! एक सरोकार के लिए संघर्ष करते नायक के भीतर एक जोगी भी बैठा है, जो उसे इस दुनिया से, उसके गुणा-भाग से परे रखता है। शायद इसीलिए आज के ‘घनघोर कामुक’ समय में वह देह के सौंदर्य से पार रूह के सौंदर्य को पहचान लेता है और उसके बगल में सत्य और शिव को बैठा कर मनुष्यता को हमेशा के लिए ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ की यह अनोखी कथा भेंट कर जाता है।