हाल ही में एक मित्र के साथ-साथ उनके परिवार को इस चिंता में घुलते देखा कि लोग इतना पढ़ने-लिखने और आधुनिक होने का दावा करने के बावजूद बेटे के लिए दहेज मांगने में शर्म क्यों नहीं करते! असल में मेरी उस मित्र के विवाह की चिंता उसके माता-पिता को थी और उन्होंने कुछ जगहों पर लड़के और उनके परिवार वालों से बात नहीं बनने के बाद दहेज-प्रथा को कोसना शुरू कर दिया था। हालांकि मुझे नहीं मालूम कि उन्हीं के परिवार में हुई उनके बेटों की शादी के वक्त उनका क्या मानना था। दोस्त से जब अलग से बात हुई तो उसने बताया कि घर में हर वक्त इसी मसले पर बात होती है कि कहां कोई लड़का है और किस स्रोत से उससे या उसके परिवार वालों से बात की जाए। जाहिर है, लड़का यानी वर खोजने की एक सीमा है। लड़की की शादी के लिए जाति और गोत्र वगैरह की जो शर्तें हैं, उन्हें पूरा करना विवाह की सबसे अनिवार्य विधि है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से लड़की के लिए लड़का एक दायरे यानी एक जाति के भीतर ही खोजना होगा। विकल्प सीमित होगा तो पितृसत्ता की बुनियाद पर जीते इस समाज में लड़के का परिवार उसके लिए कीमत तय करेगा ही। इसमें लड़का कोई भोला-भाला मासूम नहीं होता। ऐसी पारंपरिकता के कुएं में पलते-बढ़ते लड़कों में से शायद ही कोई अपनी ओर से दहेज के सवाल पर अपने परिवार के खिलाफ जाता है। वह भी शायद यही सोचता है कि यही मौका है अपने लिए ज्यादा से ज्यादा वसूलने का। सवाल है कि दहेज का सिरा कहां से शुरू होता है और क्यों खत्म नहीं होता?
विवाह हर समुदाय में एक सामान्य परंपरा है। एक स्त्री और एक पुरुष, उनके परिवार, विचार या नजरिया दोनों पक्षों को पसंद आता है, तब वे एक होने का फैसला करते हैं। हालांकि इस पर सहमति कम ही होती है कि एक होने के लिए विवाह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता। जो हो, मुझे लगता है कि विवाह की परंपरा में जाति या दहेज जैसी बाध्यताओं की जरूरत आखिर क्यों है? यह कोई छिपी बात नहीं है कि दहेज उत्पीड़न या दहेज हत्या के मामले अपनी जाति में सोच-समझ कर की गई शादियों में ही देखने मिलते हैं। विवाह के लिए जाति के दायरे में लड़का ढूढ़ना दहेज की मजबूरी तक ले जाता है। यानी जाति और फिर दहेज स्त्री को दोयम और पितृसत्ता को बनाए रखने के औजार के तौर पर भी काम आता है।
अनेक ऐसे मामलों को देखने के बाद कह सकती हूं कि आज भी विकराल समस्या की शक्ल में मौजूद दहेज प्रथा का सामना करने का अकेला और सबसे कारगर हथियार अंतरजातीय विवाह है। यानी अगर आज के युवा अपने लिए साथी की तलाश में अंतरजातीय विवाह को प्राथमिकता दें तो एक साथ जाति और दहेज की समस्या का खात्मा कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह निजी स्तर की पहल होगी, लेकिन खाप पंचायतों और मानसिकता के जिस दौर में हम जी रहे हैं, उसमें चुनौतियां तो हैं, मगर रास्ता भी यही है। कुछ राज्यों की सरकारों ने भी अंतरजातीय विवाह करने वालों के प्रोत्साहन के लिए कुछ धनराशि और उनके वैवाहिक जीवन को सुरक्षित करने के लिए सहयोग देना शुरू किया है।
यों भी, अगर दो लोग सक्षम हैं और आपस में विवाह करने पर सहमत हैं तो उनका एक जाति का होना किसी लिहाज से आवश्यक नहीं होना चाहिए। बेटी का रिश्ता जाति के भीतर करने के लिए मां-बाप क्या कुछ नहीं सहते और करते हैं। लेकिन इस परंपरागत रूढ़िवादी सोच या यों कहें कि इस दोषयुक्त बंधन से मुक्त होकर विवाह करें तो कई परेशानियों का हल इससे आसानी से निकलेगा। इससे जातिगत ऊंच-नीच, अगड़े-पिछड़े का भेद मिटेगा, जाति के आधार पर राजनीति करने वालों की दुकानें बंद होंगी और वे लोग समाज के लिए कुछ अलग रचनात्मक योगदान कर सकेंगे। जाति के दायरे से बाहर निकलने से माहौल बेहतर ही होगा। इस स्थिति को बड़े पटल पर देखें तो इससे समाज में जाति के आधार पर हो रहे हिंसक खेलों को भी खत्म किया जा सकता है। दरअसल, आज के परिवेश में अंतरजातीय विवाह वक्त की जरूरत है और कई बीमारियों की दवा भी।
आज शहरों में रहने वाले युवा दफ्तरों में साथ काम करने वाले किसी साथी के साथ अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, लेकिन बहुत कम ऐसे हैं जिनके परिवारों की भी रजामंदी मिल पाती है। जाहिर है, परिवार जब जाति के झूठ से निकल कर इसे आसानी से अपनाना शुरू करेंगे तो इसी से उपजी थोथी सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर हत्याएं भी नहीं होंगी। समाज की इस तरह की कुछ बुराइयों का नाश करना है तो जोखिम लेकर भी अंतरजातीय विवाह की ओर कदम बढ़ाना ही होगा। जाति से जुड़ी समस्या से अगर कोई समाज परेशान है तो उसे पूरी तरह खत्म करने के लिए उसे आगे भी आना होगा, अंतरजातीय विवाह को अपनाने और समाज को एक नई दिशा की ओर ले जाने के लिए।