देश में शिक्षा की सूरत कैसी बन रही है? माला को एक उदाहरण के रूप में रखते हैं। वह एक तेजतर्रार, अक्लमंद लड़की है और अपने दोस्तों पर हावी रहती है। मोबाइल पर खेले जाने वाले खेलों में वह अपनी उम्र के सभी बच्चों से ज्यादा अंक हासिल करती है। लेकिन पांचवीं में पढ़ने वाली माला अब भी हिंदी की वर्णमाला ठीक से नहीं लिख सकती। अंग्रेजी में जो कुछ समझती है, उसे बता नहीं सकती। उसके पिता ट्रक चलाते हैं। मां भी खूब मेहनत करती है। वे चाहते हैं अपनी दो बेटियों में से एक को अच्छी शिक्षा दे सकें। इसलिए उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को सरकारी स्कूल में डाला। छोटी बेटी माला को निजी अंग्रेजी स्कूल में। बड़ी बेटी की पढ़ाई-लिखाई से तो मां संतुष्ट है। लेकिन अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाली माला की वर्ग-शिक्षिका अक्सर उसकी शिकायत करती है। माला स्कूल जाना नहीं चाहती। कई बार स्कूल के लिए वह घर से निकली और भाग कर अपनी मौसी के घर चली गई। वह स्कूल की किताबों के बारे में बात नहीं करना चाहती। हालांकि वह पढ़ना चाहती है, लेकिन उसे पढ़ाई समझ में नहीं आती।
दरअसल, सारी मुश्किल अंग्रेजी से खड़ी हुई है। मां-बाप दोनों अशिक्षित हैं। मेहनत करके जो कमा रहे हैं उसका एक बड़ा हिस्सा माला की अंग्रेजी स्कूल की फीस पर खर्च कर रहे हैं, ताकि उनकी बेटी के हिस्से में आने वाली दुनिया उसके साथ बेहतर सलूक करे। वह सम्मान दे जो वे अपने लिए हासिल नहीं कर सके। माला के लिए उन्होंने ट्यूशन भी लगाया। लेकिन इसका भी कोई फर्क नहीं पड़ा। माला के माता-पिता चूंकि अंग्रेजी नहीं जानते थे, इसलिए उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बेहतर जिंदगी हासिल करने के दबाव में माला जैसे कई बच्चे हैं, जिन्हें अंग्रेजी पछाड़ रही है। छोटे निजी स्कूलों को सिर्फ इस बात मतलब है कि उन्हें फीस मिल रही है या नहीं, उनका पढ़ाया हुआ बच्चा पढ़ पा रहा या नहीं, इसकी उन्हें कोई फिक्र नहीं।
हिंदी और अंग्रेजी के फर्क का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि बच्चे किताब में जो पढ़ रहे हैं, उसे समझ नहीं पा रहे। अंग्रेजी के उन लंबे वाक्यों का मतलब उन्हें नहीं पता। जवाब रट लिए जाते हैं। तो जो शिक्षा या जानकारी कम से कम अपनी भाषा के जरिये समझ में आ जाती, अब वह भी जाती रही। यह स्थिति अंग्रेजी के दबाव के चलते है। किताबों में पढ़ी हिंदी की जिन कविता-कहानियों ने हमें किताबों की ओर खींचा, अंग्रेजी की रट्टामार पढ़ाई ने किताबों से दूर कर दिया और पढ़ाई के प्रति कुछ गुस्सा भी पैदा कर दिया। बच्चे उस शब्दावली से ही खुद को जोड़ नहीं पा रहे, जिस भाषा में वे शिक्षा हासिल कर रहे हैं।
यानी माला जैसे कितने ही बच्चे किसी तरह साल दर साल एक क्लास आगे तो बढ़ रहे हैं, लेकिन ज्ञान नहीं पा रहे। गलती उन बच्चों की नहीं है। स्कूल कहते हैं कि वे क्लास में बच्चों को समझा देते हैं, लेकिन घर में मां-बाप ही उन्हें पढ़ा सकते हैं। मां-बाप कहते हैं कि हम बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल रहे हैं, ताकि उन्हें अच्छी शिक्षा मिले और वे हमें ही दोष देते रहते हैं। विचित्र यह है कि माला की कक्षा में सिर्फ पांच-सात बच्चे ही ऐसे थे, जिन्हें पता था कि जो वे पढ़ रहे हैं, उसका मतलब क्या है। ज्यादातर बच्चे पढ़ाई के मामले में औसत से भी कमतर थे। तुलना करें तो सरकारी स्कूल में हिंदी माध्यम से पढ़ने वाली माला की बड़ी बहन की स्थिति बेहतर है।
वहीं एक अन्य बच्ची दिव्या की हालत भी ऐसी ही थी। पढ़ाई के मामले में वह माला से कुछ बेहतर है, क्योंकि वह रट्टा अच्छे से मार लेती है। वह तीसरी कक्षा में पढ़ती है। मैंने उसकी किताब से कुछ सवाल किए, जिसके उसने सही जवाब दिए। लेकिन उसका मतलब क्या है, उसे नहीं पता। वह मेरे पास पढ़ने आई थी। मुझे लगा कि उसे पढ़ाने के लिए नर्सरी की पढ़ाई से बात शुरू करनी होगी, क्योंकि अंग्रेजी में जवाब देने वाली वह बच्ची अंग्रेजी के अक्षरों की ध्वनि नहीं बता पा रही थी, जैसे एच यानी ह, जी यानी ग वगैरह।
बात जरा कड़वी है, लेकिन अधूरे सच की तरह अधूरी शिक्षा खतरनाक ही होगी। अपने बच्चों के बेहतर भविष्य की कल्पना करने वाले मां-बाप के सपने टूटने ही हैं। जब हम अपने परिवार, समाज, अपनी दुनिया को बेहतर बनाने की कल्पना करते हैं तो उसके लिए सबसे ताकतवर माध्यम शिक्षा पर ही जोर देते हैं। लेकिन जैसे अमीर और गरीब के बीच की एक बड़ी खाई है, कुछ वैसी ही खाई अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं की है। गरीब को बेहतर जीवन हासिल करने के लिए ज्यादा मेहनत करनी ही पड़ती है या फिर जीवन भर इसका जुगाड़ करना होता है। हिंदी वाले को अंग्रेजीदां बनने के लिए यही कसरत करनी होती है। अंग्रेजी सीखने के चक्कर में हिंदी भी जाती रही। भाषा ने निजी स्कूलों के खतरनाक अड्डे में शिक्षा को भी कमजोर कर दिया है।