मेरे एक मित्र का आठ साल का बेटा उनसे पूछ रहा था- ‘पापा कुआं कैसा होता है? हमें दिखा दीजिए।’ मेरे मित्र ने उसे दिखाने का आश्वासन देकर उस वक्त तो उसे बहला दिया, लेकिन मुझसे कहने लगा कि ऐसे ही नई-नई बातों से परेशान करता रहता है। मैंने उसे कहा कि दरअसल वह तुम्हें परेशान नहीं करता, यह उसके भीतर का कौतूहल है। वह नई चीजों के बारे में जानना चाहता है। हममें से कई लोग हैं जो अपने आसपास की चीजों को नजदीक से जानना चाहते हैं, लेकिन कई इसे सामान्य ढंग से ही लेते हैं। मित्र के साथ कुछ देर की बातचीत के बाद मैं अपने घर आ गया। लेकिन बच्चे के कुएं के बारे में नहीं जानने को लेकर मन उद्विग्न था कि ऐसा किन वजहों से हुआ होगा।

किसी को यह हास्यास्पद लग सकता है कि बच्चे कुआं के बारे में नहीं जान रहे हैं! जानें भी कैसे? हम अपने आसपास के जल-स्रोतों को खत्म कर रहे हैं। पानी निकालने के नई तकनीक का ईजाद कर रहे हैं। बिना यह सोचे समझे कि इससे पानी का ज्यादातर हिस्सा बर्बाद हो रहा है या हम उसका उपयोग कर पा रहे हैं। ऐसी स्थितियों में ही यह सवाल दिमाग उभरता है कि हम हर अगले रोज अपना परिवेश को भूलते तो नहीं जा रहे! जो कल तक हमारे लिए अति महत्त्वपूर्ण थे, जिन पर हमारा जीवन निर्भर था, आज उसके बारे में हमारे बच्चे ही नहीं जान रहे हैं। भावी पीढ़ियों की क्या हालत होगी, यह सिर्फ अंदाजा ही लगा सकते हैं।
हम बच्चों की किताबों में कई शब्द पढ़ते हैं। हल, बैल, तालाब, घर की चक्की आदि। एक समय था जब हमारी पूरी खेती का आधार ही हल और बैल था। लेकिन बदलते समय और तकनीक ने हल और बैल को सदियों पुरानी पद्धति बना दिया। पहले गांव से शहरों तक तालाब जल संरक्षण का महत्त्वपूर्ण स्रोत हुआ करता था। लेकिन आज तालाबों और पोखरों को भर कर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं खड़ी कर दी गई हैं। इन बहुमंजिला इमारतों को देख कर कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता कि कभी यहां बहुत बड़े तालाब भी रहे होंगे, जिसमें हजारों लीटर पानी सालों भर रहते होंगे।

इसके अलावा, घर की चक्की का तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। अमूमन सभी घरों के कोने में यह चक्की पड़ी रहती थी। हमारी दादी और नानी इसी चक्की में गेहूं, चावल आदि पीस कर उसके आटा से भोजन तैयार करती थीं। आमतौर पर योग स्थल पर इस विषय पर योग शिक्षक बताते हैं कि चक्की चलाने और मोटा दाना के भोजन से हमारे पहले की पीढ़ियां या बुजुर्ग कितने स्वस्थ रहते थे। कई लोग इस पर सवाल उठा सकते हैं कि विज्ञान के इतने विकास करने के बाद भी हम उन्हीं पुरानी पद्धतियों को क्यों ढोएं! मैं यह नहीं कहता कि आज जब सभी क्षेत्रों में इतनी तरक्की हुई है, तब भी पुराने ढर्रे पर काम होता रहे।
मेरा मानना है कि इन चीजों को सहेजने की जरूरत है कि आने वाली पीढ़ियां इन संसाधनों के बारे में भी जानें। वह यह भी जानने का प्रयास करे कि जब लोगों के पास संसाधनों का घोर अभाव था, तब वे कैसे और किन-किन संसाधनों का उपयोग कर अपने को जीवित रखते थे। लेकिन सिमटते संसार ने लोगों के पास वक्त ही नहीं रहने दिया इन सब पर सोचने के लिए। विकास के दौर में वे तेज रफ्तार से भागे जा रहे हैं। आज जब उनके बच्चे उन्हीं के पूर्वजों के उपयोग के साधनों पर सवाल पूछते हैं तो वे झल्ला उठते हैं। वे उनके प्रश्नों को टालने का प्रयास करते हैं।

आज के बच्चे भी प्रकृति से प्रेम न करके टीवी और मोबाइल की दुनिया को ही सच मान लेते हैं। उनसे अलग किसी दुनिया का उन्हें आभास ही नहीं। अक्सर सुनने को मिलता है कि शहर के बच्चे तारे को नहीं जान पाए। यह हास्यास्पद, लेकिन गंभीर प्रश्न है कि रोज रात को टिमटिमाने वाले तारों को हम नहीं देख पा रहे हैं। उसके विषय में जितना कुछ किताबों में पढ़ा है, उससे अधिक कुछ न देख पाते हैं और न कुछ सोच पाते हैं। नए जमाने के उपकरण के तौर पर स्मार्ट फोन ने तो लोगों को और अधिक आभासी दुनिया में धकेल दिया है। हमारे पास एक मिनट भी कुछ और स्वतंत्र तरीके से सोचने के नहीं बच पा रहा है। हम नए उपकरणों के दौर में पुराने साधनों को भूलते जा रहे हैं। हम न केवल पुराने औजारों को, बल्कि अपने परिवेश को ही भूल रहे हैं। पुरानी पद्धतियों को भूल रहे हैं। मानव जीवन के विकास के क्रम में पुराने संसाधनों का भी महत्त्व है। हम अपने बच्चों को अपने बुजुर्गों के साधनों के बारे में बताएं तो जरूर वे इसे सहेज कर उसमें नवीनता का रंग भर सकेंगे।