आरती मंगल
अक्सर कुछ शब्द या वाक्य दिमाग में जाकर अटक जाते हैं। खासकर तब जब हमारे जीवन के अनुभव उन शब्दों या वाक्यों को जरिया बना कर किए गए अत्याचार के करीब हों। दरअसल, शब्दों और वाक्यों के जरिए मुक्ति का रास्ता तैयार किया जा सकता है तो इन्हीं का सहारा लेकर बहुत गहराई तक और बारीक तरीके से भेदभाव की दृष्टि भी बनाई जा सकती है, इसे कायम रखा जा सकता है, शोषण या अत्याचार किया जा सकता है।
भाषा हमारे मानस को और उसके साथ हमारे समाज को गढ़ने का काम करती है। भाषा-वैज्ञानिक इस बात की पुष्टि करते हैं कि विचार भी एक स्तर पर भाषा की देन होते हैं। ऐसे में रोजमर्रा की जिंदगी में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, वह शोषित और शोषक, मुख्यधारा और हाशिये के बीच के संबंध को देखने-समझने का नजरिया प्रदान करता है।
हमारे आसपास बोली जाने वाली भाषा में इस तरह के ढेरों उदाहरण हैं। पर आज हिंदी में अधिकतर बोली जाने वाली बातों के बीच से एक वाक्यांश को देखते हैं- ‘कोई बात नहीं’। यह एक ऐसा वाक्यांश है, जिसका सीधा मतलब है कोई ऐसी चीज या बात, जिस से फर्क न पड़े या फिर जिसको बर्दाश्त करना पड़े। यह वाक्यांश अक्सर सहानुभूति या दिलासा दिलाने के तौर पर या किसी दुख को बर्दाश्त कर सकने के काबिल बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
जैसे अगर मटका टूट गया, तो ‘कोई बात नहीं और ला देंगे’ या फिर ‘वह पहले ही किसी काम का नहीं था।’ एक संदर्भ में यह उपयुक्त भी लगता है और शायद व्यक्ति की मनोस्थिति पर असर भी करता है। लेकिन यह हैरानी की बात होनी चाहिए कि हमारी रोजमर्रा की भाषा में ‘कोई बात नहीं’ जैसे वाक्यांश का लड़कियों के लिए जिस तरह से इस्तेमाल किया जाता है, वह अपने वास्तविक संदर्भों में पितृसत्तात्मक सोच को सीधे तौर पर प्रकट करता है।
इस पर ध्यान जा सकता है, अगर इसका आसपास के लोगों द्वारा और उनके बताए गए अनुभवों में इस्तेमाल पर गौर किया जाए। जब किसी के यहां लड़की पैदा हुई तो लोगों ने सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा कि ‘कोई बात नहीं, लक्ष्मी आई है।’ चूंकि अब आधुनिक दौर है, तो इस मामले में लोगों की घृणा ने सहानुभूति का चोला पहन लिया है।
लड़की का पैदा होना अभी भी अप्रिय माना जाता है, इसलिए सभ्यता का लिहाज करते हुए लड़की के पैदा होने पर अपनी सहानुभूति को ‘कोई बात नहीं’ कह कर प्रकट किया जाता है। ऐसा नहीं है कि लोग ऐसा जानबूझ कर करते हैं। बल्कि यह उनके उस मानस का प्रमाण है, जो शताब्दियों से पितृसत्ता में पला-बढ़ा है।
‘कोई बात नहीं’ जैसा वाक्यांश लड़कियों के साथ ऐसी परिस्थितियों में इस्तेमाल किया जाता है जो उन्हें मौजूदा हालात से ‘एडजस्ट’ करने यानी जो जैसा है, उसे स्वीकार कर लेने का सुझाव रखता है। ऐसी स्थितियां जो लड़कियों के लिए अप्रिय होती हैं या उनके लिए दमनकारी होती हैं, जिसके खिलाफ उनकी ओर से उनका पक्ष रखा जाना जरूरी था, उनका बोलना और लड़ना जरूरी था।
इस तरह के वाक्यांश या भाषा का बार-बार प्रयोग किए जाने पर लड़कियों का मनोबल टूटता है। बार-बार यह बोला जाना कि ‘कोई बात नहीं, घूरा ही तो था’, ‘कोई बात नहीं, गाली ही तो दी है’, ‘कोई बात नहीं, छुआ ही तो है’, ‘कोई बात नहीं, पति लड़ता है तो तुम ‘एडजस्ट’ कर लो’। इस तरह की भाषा लड़कियों को शोषित की स्थिति में रहने का प्रशिक्षण देती है।
ऐसे उदाहरण बिखरे मिलेंगे, मगर जब किसी लड़की के खिलाफ कोई बड़ी घटना हो जाती है और वह उसका वक्त रहते विरोध नहीं करती है तो भी हम लड़कियों को ही इसका जिम्मेदार ठहरा देते हैं, यह कह कर कि देखो, बेवकूफ है… पहली बार में ही रोक देना चाहिए था… उसे वापस जाना ही नहीं चाहिए था… जब पहली बार हुआ, तब क्यों नहीं बताया… अब इतने दिनों बाद बताने का मतलब जरूर कोई साजिश है… वगैरह। हम लड़कियों को उम्र भर शोषण बर्दाश्त करने के लिए तैयार करते रहते हैं और जब वे अपने साथ हुई घटना या अपराध को शोषण के तौर पर नहीं देख पातीं या उसे बता नहीं पाती तो भी इसका जिम्मेवार हम उन्हें ही ठहराते हैं।
जरूरत है कि हम अपने आसपास बोली जाने वाली भाषा को हल्के में न लें, क्योंकि भाषा हमें, समाज को और पूरी संस्था को गढ़ने का काम कर रही है। यह भी जरूरत है कि हम बैठ कर अपनी भाषा, अपने व्यवहार पर विचार करें और अपने बच्चों का पालन-पोषण उन्हें शोषित जीवन जीने के लिए नहीं, बल्कि अपने आपको व्यक्त करने, अपनी जरूरतों को बता सकने के अनुसार करें।
खुद को सहानुभूति के साथ देखना नहीं, बल्कि खुद को सशक्त महसूस करना सिखाएं। तभी असल में लड़कियों के अनुकूल समाज में बदलाव आना मुमकिन हो पाएगा। इसीलिए भाषा का इस्तेमाल हाशिये पर धकेले गए लोगों का मनोबल तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि मनोबल बढ़ाने के लिए किया जाए।