क्या आपको नहीं लगता कि मैगी और मणिपुर में कहीं कोई संबंध है? म से मैगी और म से मणिपुर को छोड़ कर!
मैगी पर पूरा देश पिल पड़ा- गोया यह इस देश का सबसे बड़ा मुद्दा हो। और मणिपुर- उसे लेकर कुछ भावुक-सी बातें, बमुश्किल एकाध बहसें। मरे पिता के लिए आंसू बहाती बच्ची को गोद में लिए साथी सैनिक की उदास आंखें और पति के शव से लिपटी रोती पत्नी।… पर ज्यादा दुख देने वाला यह सोच है कि यह तो होता ही रहता है इस देश में- कभी नक्सली मार देते हैं जवानों को तो कभी उग्रवादी। जवान देश की रक्षा के लिए हैं, जो सेना में जाता है अपने अंजाम के लिए तैयार होकर ही जाता है… और सरकार कितनी तो सुविधा देती है- प्राण के बदले ही न?
सेना के बारे में ऐसी कई बातें सुनी-पढ़ी हैं और सच कहूं, मन जार-जार रोया है।
आज भी प्रदीप का लिखा और लताजी का गाया, ‘ऐ मेरे वतन के लोगों…’ सुन कर मेरे आंसू बेसाख्ता निकलने लगते हैं।
पर आप कहेंगे कि मैगी और मणिपुर को यों साथ रखने का क्या मतलब! मतलब है, यह कि राष्ट्र निर्माण की बात हो या उत्पाद नियंत्रण की, हम भारतीयों में एक तदर्थवाद सतत दिखाई पड़ता है। हमारे पूर्वोत्तर के राज्य वैसे भी विकास योजनाओं के हाशिये पर रहते हैं।
निगाह से दूर वे हमारी स्मृति से भी लगभग ओझल हैं। उस पर से मणिपुर राज्य, जिस पर नगा उग्रवादियों की छाया बराबर बनी रहती है और जिसका दंश वहां की जनता को लगातार झेलना पड़ता है। पर हमने क्या उपाय किया है- सेना लगा दी और उसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के अंतर्गत भारी छूटें दे दी हैं। इरोम शर्मिला आज भी वहां की समस्या लेकर धरने पर बैठी हैं। पर क्या हुआ!
मणिपुर में सैनिकों के मारे जाने, मनोरमा देवी बलात्कार कांड या सैनिकों की करतूतों से त्रस्त नंगी औरतों के जुलूस सरीखी घटनाओं के बाद जरूर हममें कुछ हरकत होती है और महानगरीय संवेदना के जलाशय में कुछ बुलबुले पैदा करने के बाद वापस नेपथ्य में चली जाती है। नेपथ्य, जहां चाहे कितना भी कहा-सुना जा रहा हो, कितने ही एक्शन हो रहे हों, पर वह बाहर मुख्य हॉल में बैठे दर्शकों को तब तक दिखाई-सुनाई नहीं पड़ते, जब तक निर्देशक न चाहे।
कौन है यह निर्देशक, जो मैगी पर तो लगातार बात करवा, शोर मचवा, उसे बाजार से बाहर करवा रहा है, पर जिसने मणिपुर को अपने मन में सिसकने को छोड़ दिया है!… एकाध चक्र-वक्र फेंक दिए जाएंगे, मरे सैनिकों की बेवाओं या मां-पिता की झोली में और उन शहीदों के चित्र उन्हीं के घरों की बदरंग दीवारों पर लगे-लगे काल के थपेड़ों से धुंधले पड़ जाएंगे। उनके लिए रोने वालों की आंखें रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की कशमकश में पथरा जाएंगी।
समय बीत जाएगा और हम हर साल पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ सुन कर आंखें गीली कर लेंगे, उन अनाम लोगों के लिए, जो हमारे लिए शक्ल तो छोड़ें, नाम तक नहीं हैं- उनकी पहचान ‘सैनिक’ के तीन अक्षरों तक सीमित है।
मैगी पर बात हो रही है। पिछले दिनों कोका कोला पर भी हुई थी। पर उस जमीन पर बात नहीं हो रही, जिसे दिनों-दिन प्रदूषित किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप उपजने वाला अन्न और अन्य वस्तुएं प्रदूषित हो रही हैं। बात इस पर क्यों नहीं हो रही कि प्रदूषण को कैसे कम किया जाए, कैसे जल, जमीन और हवा को फिर से दोष-मुक्त किया जाए। जमीन किसकी और उस पर क्या उगाया या बनाया जाए और क्यों, अगर इन मुद्दों पर सटीक और नीति-निर्धारक बहस हो तो बहुत हद तक मणिपुर में सैनिकों की हत्या और नक्सली हमलों पर काबू पाया जा सकेगा।
पर नहीं, मूल मुद्दों पर बात न करना और गैर-मुद्दों को बहसों के केंद्र में बनाए रखना पूंजीपतियों द्वारा चलाए जा रहे सभी सत्तातंत्रों का चरित्र है। गरीबों को खाने को दाने न मिलें, पर अमीरों के लाडलों की परम प्रिय मैगी में सीसा हो- यह तो अक्षम्य अपराध ठहरा, खासतौर पर तब जब यहां का ‘अपना’ उत्पाद अब कतार में है! मणिपुर में मैगी खाने वाले भले हों, पर मैगी इस देश में बनेगी-बिकेगी, इस नीति का निर्धारण तो देश का केंद्र्र ही करेगा न! और मणिपुर देश का केंद्र नहीं है, वह तो हाशिए पर है!
सुमन केशरी
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