प्रदीप उपाध्याय

प्रेम में नफरत के लिए कहां स्थान है! इसमें बदले का भाव या अलगाव की सोच को कहां स्थान हो सकता है। प्रेम युद्ध भी नहीं है, जिसमें कहीं जीत-हार का भाव हो। स्वार्थपूर्ति का भाव तो प्रेम हो ही नहीं सकता! प्रेम में तो प्रेमी खुद न्योछावर हो जाता है, न कि किसी को टुकड़े करके तंदूर में झोंके या किसी के बेरहमी से बत्तीस या बहत्तर टुकड़े करके जंगल में फेंके! प्रेम में गला नहीं रेता जाता, आशिक पर कुल्हाड़ी नहीं चलाई जाती। प्रेम एक स्थायी भाव है गहरे समंदर-सा, न कि पहाड़ी दरिया में आई अचानक बाढ़, जो वर्षा के रुकते ही खामोशी का दामन थाम ले।

प्रेम और आसक्ति में अंतर है। आसक्ति में विषय-वासना का भाव हो सकता है। शारीरिक आकर्षण किसी को पाने की चाहत बन सकता है, लेकिन यह प्रेम नहीं हो सकता। मीरा और राधा के प्रेम की क्या कोई थाह पा सकता है? क्या प्रेम इतना कमजोर हो सकता है कि उसका उफान पहाड़ी नदी के समान कुछ ही समय में उतार पर आ जाए? अगर किसी के जीवन में प्यार नहीं है तो जीवन में अधूरेपन का अहसास होता है, अपूर्णता-सी लगती है।

प्यार एक अहसास है, अनुभूति है। प्यार वह नहीं है जो फिल्मों में दिखाया जाता है। प्यार वह भी नहीं है कि एक नजर में देखा और हो गया। आकर्षण और प्यार में भेद है। आकर्षण रूप, रंग देखकर हो सकता है और फिर उसमें पाने का भाव प्रस्फुटित हो सकता है। वहीं प्यार समर्पण का भाव है, अंतर्मन की अनुभूति है। इसमें त्याग की भावना है। प्रेम में रंग-रूप या किसी भी तरह का भेदभाव नहीं देखा जाता।

हम इसे किसी भी नाम से पुकारें, यह हमारे भीतरी भावों का प्रकटीकरण है। दुनिया का सबसे खूबसूरत अहसास है, जिसके बिना सब कुछ अधूरा-अधूरा सा है। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि ‘जहां प्रेम है, वहां जीवन है।’ इसे अपनी जिंदगी में हर कोई महसूस करता है, हर कोई इसे जीना चाहता है। प्रेम ही एक ऐसा पुष्प है, जिसका कोई एक मौसम नहीं होता है, वह सदाबहार रहता है।

खलील जिब्रान ने कहा है कि ‘प्रेम केवल खुद को ही देता है और खुद से ही पाता है। यह किसी पर अधिकार नहीं जमाता, न ही किसी के अधिकार को स्वीकार करता है। इसके लिए तो प्रेम का होना ही बहुत है।’प्रेम जीवन में संतुष्टि का भाव उत्पन्न करता है। इंसान यह क्यों भूल जाता है कि प्रेम का संबंध सभी नातो-रिश्तों से अधिक पवित्र और सर्वश्रेष्ठ है। जिसके भी हृदय में प्रेम का वास है, उस व्यक्ति का हृदय स्वर्ग-सा सुंदर है।

रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है- ‘हमारे अंतस में यदि प्रेम न जाग्रत हो, तो विश्व हमारे लिए कारागार ही है।’ यह बात भी समझी जानी चाहिए कि प्रेम कोई वस्तु नहीं है, जिसे खरीदा-बेचा जा सके। इसमें तो व्यक्ति स्वयं को अर्पित करता है, इसमें समर्पण का भाव सन्निहित है। प्रेम में बदले का भाव नहीं होता है। प्रेम न तो व्यापार है, न ही किसी तरह के लेनदेन का सौदा।

जिब्रान के मुताबिक, ‘प्रेम के रस में डूबो तो ऐसे कि जब सुबह तुम जागो तो प्रेम का एक और दिन पा जाने का अहसान मानो। और फिर रात में जब तुम सोने जाओ तो तुम्हारे दिल में अपने प्रिय के लिए प्रार्थना हो और होठों पर उसकी खुशी के लिए गीत।’ कबीरदास की पंक्ति भी यहां उल्लेखनीय है- ‘प्रेम पियाला जो पिये, शीश दक्षिणा देय। लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय।’

प्रेम में वह ताकत है जो शत्रु को भी अपना मीत बना लेती है। जिसके हृदय में प्रेम भरा हो वह अपने प्रिय पात्र की गलतियों को भी क्षमा करते हुए उससे प्यार करता रहता है। प्रभु यीशु की भी शिक्षा है कि ‘प्यार करना, स्नेह लुटाना मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है। जो कुछ तुम सहर्ष उदारतापूर्वक दोगे, वह अप्रत्याशित तरीकों से तुम्हारे जीवन को समृद्ध कर जाएगा।’

प्रेम असीम विश्वास का नाम है। इसी में असीम धैर्य निहित होता है और इसी से असीम बल मिलता है। आज हम जहां भी देखते हैं तो यही पाते हैं कि हर कोई प्रेम में केवल पाना ही चाहता हैं और जब हासिल नहीं होता है तो एक दूसरे का अहित करने में पीछे नहीं रहता। लेकिन क्या यही प्यार है! एरिक फ्राम ने कहा है- ‘अपरिपक्व प्रेम कहता है- मैं तुमसे प्यार करता हूं, क्योंकि मुझे तुम्हारी जरूरत है। परिपक्व प्रेम कहता है- मुझे तुम्हारी जरुरत है, क्योंकि मैं तुमसे प्यार करता हूं।’ प्यार तो तब अनुभूत होता है जब अपने प्रिय की खुशी स्वयं की खुशी से अधिक महत्त्वपूर्ण लगे।

जाहिर है कि प्रेम और संशय कभी साथ-साथ नहीं चलते। किसी को प्रेम करने का तब तक कोई अधिकार नहीं है, जब तक कि त्याग, समर्पण, संवेदनशीलता, भावप्रवणता आपके अंग-प्रत्यंग में समाहित न हो जाए और अंतर्मन से केवल एक ही बात निकले कि मेरे प्रिय को जीवन की हर खुशी मिले और उसके सभी गम मैं झेल जाऊं। प्रेम सच्चा होगा तो व्यक्ति खुद को भूल जाएगा, क्योंकि वह उसी में समाहित हो जाता है। प्रेम की राह बहुत कठिन है, इस पर वही कदम बढ़ाए जो दूसरों पर नियंत्रण की भावना से परे रह कर आत्मनियंत्रण का भाव रख सके।