अगर कार्यालयों के परिप्रेक्ष्य में इस वाक्य पर गौर किया जाए कि ‘बहुत काम है’, तो इसके साथ ही फाइलों का अंबार सामने आ जाता है। उन फाइलों को देख कर कर्मचारी की आंखों के सामने अंधेरा-सा छाने लगता है और प्यास लगने लगती है। चाय की तलब भी होने लगती है। पुरुष तो काम की अधिकता के बोझ से दबे रहते ही हैं, महिलाएं भी कम परेशान नहीं रहतीं। चलते-फिरते यह अक्सर सुना जाता है कि घर में काम, इधर भी काम… सब जगह काम ही काम! ऐसे कुछ उदाहरण आम देखे जा सकते हैं।

मसलन, मिस्टर क अपने कार्यालय अभी पहुंचे ही हैं। नाश्ता-पानी किया और छोटे-से कंघे से बाल संवारे। वे फाइलें खोल ही रहे हैं कि उनकी टेबल पर रखा फोन घनघना उठा है। फोन उठाते ही वे बोलते हैं- ‘क्या हुआ …तो इतना घबरा क्यों रही हो? क्या कहा…! किचेन में छिपकली आ गई है! ऐसा करो, तुम बेडरूम में बैठो, मैं आता हूं।’ वे जल्दी से अपने बॉस के पास जाते हैं और बताते हैं कि उनके घर में कुछ समस्या आ गई है। पत्नी का फोन आया है और वे घर जा रहे हैं। सभी कर्मचारी एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कराते हैं। सच तो यह है कि मिस्टर क एलआइसी के एजेंट हैं और उन्हें अपना ‘लक्ष्य’ पूरा करना है। इसलिए फोन आते ही उठ कर चल पड़े।

कुछ लोग काम के बहाने सामूहिक रूप से निगरानी करते हैं। कौन कब किसके केबिन में गया और कितनी देर रहा है। केबिन से बाहर आते समय उसके चेहरे पर मुस्कान थी या निराशा। कुछ लोग अपनी सीट के अलावा बाकी सबकी सीटों पर हालचाल पूछते-बताते मिलते हैं। साथ ही यह भी कोशिश रहती है कि कहीं दाल गल जाए शायद! कुछ लोग दफ्तर को ही अपना घर समझने लगते हैं और उन्हें लगता है कि यहां भी वे वह सब कुछ कर सकते हैं, जो घर में करते हैं।

एक दफ्तर में तो कमाल हो गया। बोर्ड पर फोन बजता रहा, पर आॅपरेटर ने फोन नहीं उठाया। बाद में पता चला कि वहां आॅपरेटर कोई और काम कर रहा था। ड्यूटी से मुक्त होने के बाद यह दुख कि ‘उफ्फ… कितना काम है! दफ्तर में दस मिनट का समय भी नहीं मिलता।’ कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो कार्यालय का दैनंदिन कार्य उसी दिन पूरा करने में विश्वास नहीं रखते। उनके अनुसार कुछ प्रतिशत काम बाकी रखना चाहिए। जब भी ऐसे लोगों से खाली बैठने का कारण पूछा जाता है तो उनका उत्तर होता है कि यहां आकर आलसी हो गए हैं, वरना तो वे काम के आदमी रह चुके हैं! बहुत काम किया है, अब आराम करेंगे! कुछ लोग ओवरटाइम के चक्कर में भी काम करते रहते हैं। वे मानते हैं कि ओवरटाइम का पैसा जलसे के लिए होता है।

सरकारी दफ्तरों में काम करने का अपना मजा है। अगर स्थायी कर्मचारी है, तो फिर चिंता की कोई बात नहीं है। काम करो या न करो, वेतन मिलेगा, छुट्टियां मिलेंगी! चिकित्सीय प्रतिपूर्ति तो मिलेगी ही। काम करने की कोई जल्दी नहीं होती। कारण सरकारी काम है, अपना काम थोड़े ही है, जो भाग-दौड़ करें। इस कार्यालयीन समय में खुद के कितने काम किए जाते हैं, इसका सर्वे किया जाए तो दिलचस्प नतीजे सामने आएंगे। मस्टर में हस्ताक्षर करने के बाद तो समझिए दफ्तर अपना घर हो गया।
यह भी सच है कि जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, वे अपने कर्मचारियों से जम कर काम लेती हैं।

वहां लक्ष्य तय है कि इतना काम नहीं किया तो नौकरी पर तलवार टंगी रहती है। लोगों को बारह-तेरह घंटे भी काम करना पड़ता है, तब कहीं जाकर वेतन मिलता है, वह भी बंद लिफाफे में चेक। पड़ोस में बैठे सहयोगियों को भी नहीं पता होता कि किसको कितना वेतन मिल रहा है। एक अलग तरह की रहस्यभरी ‘प्राइवेसी’ होती है वहां! इन कंपनियों में ‘फेसबुक’ या दूसरी सोशल वेबसाइटें प्रतिबंधित रहती हैं। दफ्तर के फोन से निजी फोन नहीं कर सकते। अगर जरूरी बात करनी ही है तो एसएमएस के जरिए बात की जा सकती है। छुट्टियां भी सीमित होती हैं। एक मित्र बता रहे थे कि उन्हें याद नहीं आता कि कभी पंद्रह दिन की छुट्टियां एक साथ ली हों। अपनी शादी में भी उन्हें सात दिन की ही छुट्टी मिली थी। कंपनी के अनुसार अगर सब छुट्टियां ही लेते रहेंगे तो काम कब करेंगे।

इन कंपनियों में काम करने वाले कभी नहीं कहते कि उफ्फ… कितना काम है! वे कहते हैं, बहुत काम है और जल्दी ही पूरा करना है। सवाल मानसिकता का है।

मधु अरोड़ा

 

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