बाल मुकुंद ओझा
राजस्थान भारत की अव्वल सैरगाहों में एक है। लेकिन ये स्थल इंसानों से ज्यादा आवारा पशुओं की सैरगाह बनते जा रहे हैं। राजधानी जयपुर में आवारा पशुओं की समस्या लाइलाज होती जा रही है। यहां आवारा गायों, सांड़ों, सूअरों, बंदरों और कुत्तों का काफिला कहीं भी चलता-फिरता मिल जाएगा। हाल ही में एक आवारा सांड़ ने तो एक विदेशी पर्यटक की जान ले ली, जिसके कारण स्थानीय प्रशासन और सरकार में हड़कंप मचा हुआ है। अर्जेंटीना के इस पर्यटक की मौत पर वहां के दूतावास ने गहरी नाराजगी व्यक्त की है। देशी और विदेशी पर्यटकों में भी खलबली मच गई। कई देशों ने अपने नागरिकों को सावधान भी किया है, जिसका असर सीधे तौर पर राजस्थान के पर्यटन व्यवसाय पर भी पड़ सकता है।
हालांकि, आवारा पशुओं की समस्या पूरे देश में विकराल रूप ले रही है जिसका कोई हल निकालने में सरकारों की रुचि दिखाई नहीं पड़ती। आए दिन आवारा पशुओं की धमा-चौकड़ी की चपेट में आकर राह चलते लोग अपने हाथ-पैर तुड़वाने को मजबूर हैं। कई बार तो वाहनों से भिड़ंत होती है, जिसमें खुद जानवर भी घायल होते रहते हैं। कइयों के पैर टूट जाते हैं और पूरी जिंदगी उन्हें लंगड़ाते ही चलना पड़ता है। राजस्थान के शहरी इलाकों में गायों का झुंड कहीं भी विचरता हुआ मिल जाएगा। इस कारण न केवल लोगों को आने-जाने में दिक्कत होती है बल्कि सड़कों पर गंदगी फैलती है। इन पशुओं से मार्ग-दुर्घटनाओं में इजाफा हो रहा है। रात में मोहल्ले के पार्क और सड़कें गायों से भरी रहती हैं। सुबह रोज पार्कों से उनकी गंदगी साफ करने में घंटों लगते हैं। गायों तथा सांड़ों के बड़े झुंड, बाजारों, गलियों, मुख्य सड़कों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर सरेआम टहलते हुए राहगीरों के लिए खतरा बने हुए हैं।
बाजार क्षेत्र में दुकानदारों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है। पशुओं के आपस में लड़ने-भिड़ने से अक्सर बाजारों में भगदड़ मच जाती है। कई बार तो ये जानवर किसी भी दिशा में दौड़ लगा देते हैं, जिससे अक्सर ठेले, दुकानों के सामान या राहगीर उनकी चपेट में आते हैं। बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे अक्सर इनके शिकार होते रहते हैं। सब्जी मंडियां तो लगता है कि जानवरों के लिए ही जैसे आबाद हुई हों। वे कहीं भी अपना मुंह मारते रहते हैं। सफाई नहीं होने और जगह-जगह कचरे के ढेर लगे रहने से माहौल नारकीय हो जाता है। मवेशियों का जमघट शहरी जीवन के लिए बड़ी समस्या बन गया है। अगर वास्तव में इस बारे में स्थानीय निकायों और निगमों ने कोई रोडमैप तैयार नहीं किया तो सचमुच स्थिति भयावह हो जाएगी। कई बार तो स्थिति ऐसी बन जाती है कि लोगों को वाहन रोक कर इन्हें हटाना पड़ता है।
पशुपालक जब तक गायें-भैंसें दूध देती है, उनका दूध निकालते हैं और उसके बाद उन्हें खुला छोड़ देते हैं। अगर वे फिर गर्भधारण कर लेती हैं और दूध देने के लायक हो जाती हैं तो पकड़ कर फिर से बांध लेते हैं, नहीं तो छुट्टा छोड़ देते हैं। तमाम पशुपालक ऐसे हैं जो केवल दूध दुहने के लिए पशुओं को अपने अड्डे पर लाते हैं बाकी समय उन्हें खुल्ला छोड़े रहते हैं। विडंबना यह है कि स्थानीय प्रशासन की तरफ से पशुपालकों की न तो गणना कराई जाती है और न ही यह देखा जाता है कि शहर में कितने पशु हैं और उनका मालिक कौन है। समस्या तब विकराल हो जाती है जब कोई आवारा पशु किसी वाहन से टकरा कर या आपसी लड़ाई में या किसी हारी-बीमारी से मर जाता है तो कई-कई दिन तक वह वहीं सड़ता रहता है। स्थानीय प्रशासन को खबर होने में ही कई रोज लग जाते हैं और खबर हो भी गई तो वे हटाने में टालमटोल करते रहते हैं। इससे आसपास का इलाका बदबू से भर जाता है।
विदेशी पर्यटक की मौत के बाद जयपुर नगर निगम ने कुछ कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई की है। लेकिन यह सब खानापूरी से ज्यादा नहीं लगता। जब कोई घटना घट जाती है तो इस तरह की लीपापोती करना आम बात है। सवाल है कि जब तक योजनाबद्ध ढंग से पशुओं की गिनती नहीं की जाती और उनके मालिकों को चिह्नित नहीं किया जाता तब तक यह समस्या टलने वाली नहीं है। निगमों और स्थानीय निकायों के सामने मुश्किल यह है कि अगर वे उन पशुओं को पकड़ भी लें तो रखें कहां। क्योंकि उन्हें खिलाने-पिलाने और उनकी दवा-दारू कराने की भी जरूरत पड़ेगी।
आवारा पशुओं से शहर को मुक्त कैसे किया जाए, यह तय करना आसान नहीं है। शहर के लोगों को दूध भी चाहिए और पशुओं से मुक्ति भी। अपने पर्यटन स्थलों को वैश्विक स्तर का बनाना है और अगर हम चाहते हैं कि दुनिया भर से सैलानी हमारे नगरों, महानगरों की कलाओं और इमारतों को देखने आएं तो हमें इसके लिए इंतजाम भी करने होंगे। सिर्फ अखबारों और मीडिया में इश्तहार देने से पर्यटन को बढ़ावा नहीं मिल सकता। अब या तो शहरी क्षेत्रों में गायों, भैसों या सूअरों, बकरियों आदि के पालन पर पाबंदी लगाई जाए या उनके लिए अलग से शालाएं बनाई जाएं। शहरों को पशुओं से मुक्त करने टेढ़ी खीर तो है, लेकिन आज के दौर में यह जरूरी भी होता जा रहा है।