जब कभी कहानियों की बात होती है तो बचपन में सुनीं दादा-दादी, नाना-नानी की जादुई कहानियां याद आती हैं। शायद ही कोई बच्चा होगा जिसे कहानियां सुनना पसंद नहीं है। भारत में बच्चों को कहानी सुनाने की एक लंबी परंपरा रही है। आमतौर पर बच्चों को कहानी सुनाने का उद्देश्य केवल नैतिक सीख देना माना जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में इस परंपरा का ह्रास हुआ है। अब ऐसे लोग मुश्किल से मिलते हैं जो अपने बच्चों को रोज एक कहानी सुनाते हों।

अगर बच्चों के सीखने के संदर्भ में ‘कहानी सुनाना’ यानी ‘स्टोरी टेलिंग’ के महत्त्व पर बात करें तो ‘स्टोरी टेलिंग’ एक शक्तिशाली शिक्षण प्रक्रिया है, जिसका बच्चों के सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। दरअसल, कहानियां बच्चों के लिए रोचक, रोमांचक और प्रेरक होती हैं जो उन्हें दैनिक जीवन से काल्पनिक संसार में ले जाती हैं और नए विचारों को सोचने के साथ भावनाओं को समझने में मदद करती हैं। इस तरह कहानियां बच्चों के भावनात्मक विकास की कई गहरी जरूरतों को पूरा करती हैं। आधुनिक शिक्षाविदों ने बच्चों को कहानी सुनाने की वकालत की है। शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने लिखा है कि ‘कहानियों का बच्चों पर एक जादुई असर होता है और बच्चों को कहानी सुनाने से कई प्रकार के फायदे होते हैं। जैसे कहानियां बच्चों में अच्छी तरह सुनने की क्षमता का विकास करती हैं, बच्चों को अंदाजा लगाने का प्रशिक्षण देती हैं, उनके लिए नए शब्दों को अर्थ देती हैं और बच्चों की दुनिया को फैलाती हैं। इसके जरिए बच्चे ऐसे लोगों और स्थितियों को जान लेते हैं, जिनसे उनका वास्ता कभी नहीं पड़ा।’

आमतौर पर ‘स्टोरी टेलिंग’ को लोग अपने-अपने अनुसार परिभाषित करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि किताब से पढ़ कर कहानी सुना देना ही ‘स्टोरी टेलिंग’ है। कुछ लोग हाव-भाव के साथ कहानी सुनाने को ‘स्टोरी टेलिंग’ मानते हैं और कुछ दादी-नानी द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों को इस श्रेणी में लाते हैं। लेकिन ‘स्टोरी टेलिंग’ का उद्देश्य केवल हाव-भाव के साथ कहानी सुना कर उसकी नैतिकता बता देना नहीं है, बल्कि इसका मुख्य उद्देश्य कहानी सुनने के बाद बच्चे द्वारा कहानी के विभिन्न पहलुओं की जांच-पड़ताल कर उस पर क्रिया करना है।
एक दिन कक्षा में मैंने बच्चों को हाव-भाव के साथ ‘प्यासा कौवा’ नाम की कहानी सुनाई। कहानी में एक प्यासा कौवा पानी की तलाश में उड़ता है। अंत में उसे जंगल में एक पानी का घड़ा दिखाई देता है, लेकिन उसमें पानी कम होता है। इसलिए उसकी चोंच पानी तक नहीं पहुंच पाती है। तभी कौवे को एक युक्ति सूझी और वह घड़े के पास पड़े पत्थर-कंकड़ को अपनी चोंच से उठा-उठा कर घड़े में डालता है। इस तरह कौवे के कई प्रयासों के बाद घड़े में पानी ऊपर आ जाता है और वह अपनी प्यास बुझाता है। कहानी सुनाने के दौरान और उसके बाद मैंने बच्चों से कई प्रश्न किए। जैसे ‘कौवा को प्यास क्यों लगी थी?’, ‘क्या सभी पक्षियों को प्यास लगती है?’, ‘जंगल में घड़ा किसका होगा?’, ‘क्या कौवा चोंच से कंकड़ उठा सकता है?’, ‘क्या घड़े में कंकड़ डालने से पानी ऊपर आ जाता है?’, ‘कौवा अपनी प्यास और कहां-कहां से बुझा सकता था?’

बच्चों ने अपने अनुभव और कल्पनाओं पर आधारित तर्कों के साथ अपनी बात रखी और फिर एक गतिविधि के माध्यम से घड़े में कंकड़ डाल कर देखे। इसके परिणामस्वरूप कुछ बच्चों के नजरिये में बदलाव आया। इसके उदाहरण मुझे कक्षा में देखने के लिए मिलते रहे। बच्चों को ‘प्यासा कौवा’ कहानी सुनाने का मेरा उद्देश्य केवल ‘मुश्किल घड़ी में सूझ-बूझ से काम लेना’ नहीं था। बल्कि मेरा मुख्य उद्देश्य था कि बच्चे कहानी के पहले, कहानी के दौरान और कहानी के बाद कहानी के विभिन्न पहलुओं की जांच-पड़ताल कर उसको अपनी दैनिक क्रिया में लाएं।
दरअसल, कहानियां माध्यम हैं बच्चों की भीतरी दुनिया में गहराई तक जाने का, ऐसी जगहों तक जहां कल्पनाएं और सपने नए और व्यापक होती दुनिया के नजरिए को गढ़ते हैं। ये बच्चों की कल्पनाओं और उनके आसपास के यथार्थ के बीच एक जुड़ाव भी है जो उन्हें विभिन्न प्रश्नों का उत्तर देने में मदद करता है। जैसे मैं कौन हूं या मैं कहां जा रहा हूं! इस तरह ‘स्टोरी टेलिंग’ बच्चे को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मकता के संयुक्त प्रयासों के साथ सजग और अपने अनुभवों के आधार पर विश्लेषणात्मक विचार करने की दिशा प्रदान करती है। इसके माध्यम से बच्चों को सोचने, याद करने, प्रतिबिंबित करने, कल्पना करने और प्रतिक्रिया देने का प्रोत्साहन मिलता है। ये सभी उनके भाषा-संबंधी और अन्य विषय के लिए जरूरी कौशलों का विकास करती हैं। लेकिन आजकल दादी-नानी की कहानियां हाशिये पर चली गई हैं और माता-पिता या शिक्षकों के पास बच्चों को कहानियां सुनाने के लिए समय नहीं है। लेकिन अब सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षक और माता-पिता को बच्चों को कहानी सुनाने की भूमिका को पहचानना होगा।