भाषा एक प्रयोगधर्मी वस्तु है। इसे आप तभी सीखेंगे जब प्रयोग करेंगे और एक नहीं बल्कि कई-कई तरह से प्रयोग करेंगे। दूसरी बात यह कि भूलों और गलतियों से खौफ खाना भाषा के शिक्षक और विद्यार्थी, दोनों के लिए नुकसानदेह हो सकता है। इसे ऐसे समझा जा सकता है। आपने गौर किया होगा कि एक आठ-दस माह से ऊपर का बच्चा चलना सीखने के लिए सब कुछ करता है, और यह अभिप्रेरणा उसे आप और हम नहीं देते, बल्कि प्रकृति स्वयं देकर भेजती है। संभव है, प्रकृति यह बात जानती हो कि बच्चे को चलना सिखाने की जिम्मेदारी अगर उसने हमारे ऊपर रख छोड़ी तो बच्चे के साथ बड़ा अन्याय हो जाएगा और चलना तो शायद ही वह कभी सीख पाएगा। तो पहले वह कमर के बल पलटियां खाता है, शरीर को ऊपर उछालता है और फिर घुटनों के बल अपने को घसीटना-लथेड़ना शुरू करता है। इस क्रम में यह सब इतना आसान नहीं होता जितना दिखता है, और उसके घुटने व सिर अनेक बार गंभीर रूप से चोटिल होते हैं, लेकिन यह तकलीफ सीखने के आनंद के आगे कुछ भी नहीं है।

यूनेस्को के अनुसार दुनिया की आबादी का एक हिस्सा लिखने और पढ़ने के कौशल से अनभिज्ञ है यानी पूरी तरह निरक्षर है। लेकिन यह आबादी भाषाई ज्ञान के मामले में संभव है हमसे कहीं अधिक समृद्ध हो, जिसके पास एक अद्भुत शब्द-भंडार होगा और अभिव्यक्ति(मौखिक ही सही) की एक अलग धार होगी। आप अगर कभी छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा, उत्तर-पूर्व के राज्यों सहित भारत के एक अछूते विशाल भू-भाग के जनजातीय क्षेत्रों का दौरा करेंगे तो उनके गीतों व भावों सहित जीवन में भाषाई खुशबू जरूर महसूस कर पाएंगे। कबीर ने कहा था- ‘मसि कागद छुयो नहीं कलम गही नहीं हाथ’। यह बात सर्वमान्य है कि एक ओर कबीर जहां ‘अनपढ़’ व ‘निरक्षर’ थे, वहीं तुलसीदास संस्कृत के प्रकांड विद्वान। लेकिन कबीर को भाषा में कहीं से कमतर नहीं माना जा सकता। संसार के चोटी के भाषा वैज्ञानिक और साहित्य के न जाने कितने ही विद्वान कबीर के काव्य पर सैकड़ों शोध कर चुके हैं, और न जाने कितने शोध अब भी जारी हैं।

ऐसा नहीं कि ये उदाहरण अतीत में ही उपलब्ध हैं। आधुनिक काल के हिंदी के सबसे महान लेखकों में से एक जयशंकर प्रसाद मैट्रिक परीक्षा भी नहीं पास कर पाए थे और उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था। लेकिन हिंदी साहित्य के इतिहास में वे छायावादी आंदोलन के प्रणेताओं में से एक के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने हिंदी भाषा व काव्य की शैली में एक क्रांतिकारी मोड़ पैदा किया। क्या यह अपने आप में एक हैरत में डालने वाली बात नहीं है?
विदेशी लेखकों में भी ऐसे नामों की कमी नहीं है जिन्होंने स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की और भाषा के कथित संरचनात्मक व व्याकरणिक ज्ञान से वंचित रह गए। इस सूची में चार्ल्स डिकेंस, विलियम फाकनर, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, एचजी वेल्स, जैक लंदन, मो. यान जैसे दिग्गजों के नाम गिनाए जा सकते हैं।

इन तथ्यों के आलोक में यह सवाल पूछा जाना सहज ही है कि क्या भाषा और साहित्य किसी पारंपरिक ज्ञान के मोहताज हैं? भाषा का विकास एक स्वत:स्फूर्त घटना है और इसमें एक बेहद आम व्यक्तिका योगदान भी उतना ही अहम होता है जितना एक भाषा वैज्ञानिक या विद्वान का। हम सभी कहीं न कहीं भाषा को दिन-रात गढ़ते हैं, नए मुहावरे खोजते हैं, नई संवाद शैलियां ईजाद करते हैं और इस तरह नित नई अभिव्यक्तिको पैदा करते हैं। इसी तरह भाषा बनती है और इसी तरह उसे सीखा भी जा सकता है। जब हम एक बात को नए तरीके से कहने की हिम्मत जुटाते हैं, बिना यह सोचे कि क्या यह सही है, तभी हम कुछ नया और रचनात्मक कर रहे होते हैं। एक कहानी या एक कविता को कहने और लिखने के हजार तरीके हो सकते हैं। इनमें से कुछ ही अभी खोजे जा सके हैं। लेकिन अगर हम भाषा को एक नए उदार चश्मे से देखें तो पाएंगे कि इसे बांधा नहीं जा सकता। न व्याकरण में और न ही किसी सीमित शब्दकोश में। इसे आगे बढ़ाना ही होगा।

हमारी आने वाली पीढ़ी इस दिशा में बहुत निर्णायक भूमिका निभाने वाली है। यह पीढ़ी कुछ अलग तरह की कहानियां गढ़ेगी, कुछ बिल्कुल अलग प्रकार का काव्य रचेगी, अपनी बातें कुछ अलग ही शब्दों में कहेगी जिन्हें अभी कहा जाना शेष है। क्या हम अपने दिमाग खुले रख सकते हैं? क्या एक भाषा शिक्षक के तौर पर हम इस नई पीढ़ी के प्रति उदार होने को तैयार हैं?