टीवी पर प्रसारित होने वाले पारिवारिक धारावाहिकों का एक अलग महत्त्व है। लोगों के बीच टीवी आज एक आदत की तरह है तो उसमें इन धारावाहिकों का बहुत बड़ा योगदान है। इस लिहाज से महिलाओं को टीवी से बांधे रखने वाले पारिवारिक धारावाहिक बेहद अहम हैं। हां, इस महत्त्व का संदर्भ अलग-अलग हो सकता है। महत्त्व की कुछ चीजें समाज को आगे ले जाती हैं तो कुछ जड़ बना कर रखने में मददगार की भूमिका निभाती हैं। ये धारावाहिक कहने को महिला-प्रधान या महिलाओं की केंद्रीय भूमिका वाले होते हैं, लेकिन वे पुरुषों के आग्रहों को तुष्ट करते हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आज की तारीख में धारावाहिक आम लोगों के जीवन पर गहरी छाप छोड़ रहे हैं। और जब इतना बड़ा वर्ग इनके प्रभाव के दायरे में है तो इनकी पटकथाओं पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है।
अधिकतर धारावाहिकों में महिलाओं की भूमिका एक ऐसी सास, मां, पत्नी और बहन के रूप में दिखाई जाती है, जिससे कभी-कभी हरेक रिश्ते का आधार ही संदेह और आशंकाएं नजर आती हैं। इन धारावाहिकों में महिलाएं अक्सर एक दूसरे पर संदेह करती नजर आती हैं। सास बहू पर संदेह कर रही है तो ननद अपनी भाभी पर शक करते हुए ऐसे ऐसे सवाल करती है, मानो ननद नहीं कोई सीबीआई का अधिकारी किसी बड़े खुलासे के इरादे से पूछताछ कर रहा हो। पत्नी अपने पति से बाहर बिताए एक-एक पल का हिसाब मांग रही होती है, वह भी सबूत के साथ, तो पति अपनी पत्नी के पीछे सारा काम-धंधा छोड़ कर लगा रहता है। इन कामों के बाद महिलाएं किसी बाबा से परिवार पर आई विपत्ति पर धार्मिक सुझाव मांग रही होती है, तो कभी किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए अनुष्ठान के विमर्श में लगी होती है। नायक-नायिका ने भले ही विदेशों के नामी शिक्षण संस्थानों से डिग्रियां लेकर अपना कारोबार भी दुनिया के कई कोने में फैला लिया हो, लेकिन उन्हें अपने ‘गण देवता’ पर अटूट विश्वास होता है और उसके आशीर्वाद के बिना परिवार का कोई सदस्य एक कदम भी नहीं चल सकता!
खेती और किसानी, कारखानों में काम करते मजदूरों की कहानियां तो परदे से बहुत पहले ही गायब हो गए थे। अब फिल्मों से लेकर घर-घर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में भी कॉरपोरेट जगत की ही कहानी दिखाई जाती है। आम लोग भले इनकी कहानी देख कर इनकी झोलियां भर रहे हैं, लेकिन किस्सों-कहानियों और परदे पर वे कहीं नहीं हैं। महिलाएं इन कॉरपोरेट घरानों के लिए सिर्फ ‘प्रदर्शनी की वस्तुएं’ हैं। इसे हम देख सकते हैं सास-बहू, ननद-भाभी और जेठ-जेठानी वाले धारावाहिकों में, जिनकी पटकथा सदियों पुरानी रूढ़िवादी परंपराओं से लबरेज रहती है। घर में बड़ों की दहशत इस तरह है कि एक पत्ता भी उनकी इजाजत के बिना नहीं हिलता। जमींदारी और सामंतवादी प्रथा हमारे देश से पूरी तरह खत्म हो चुकी हैं। लेकिन टीवी के माध्यम से आज वही संस्कृति थोपी जा रही है, जिसमें महिलाएं जेवरों से लदी रहेंगी, बड़ों का शासन मानेंगी और घर से बाहर के कामों में दखल नहीं देंगी!
इस छवि की महिला चरित्रों को सौंदर्य का प्रतीक बना कर पेश किया जा रहा है। हाल ही में देश की तीन बेटियों ने युद्धक विमान उड़ाने का गौरव हासिल किया। हरेक क्षेत्र में महिलाएं अपनी काबिलियत साबित कर रही हैं। इसके बावजूद पारंपरिक छवि की महिलाओं का चरित्र इस तरह दिखाया जा रहा है, जिससे लोगों के मन में औरत के प्रति पुरानी और परंपरागत सोच और ठोस हो रही है। घरों में एक दूसरे के विरुद्ध साजिश रचती, अपमानित करती, त्योहारों और उत्सव के मौकों पर स्त्रियों के दायित्वों को ध्यानपूर्वक निभाती। क्या इसी से आधी आबादी का सपना पूरा हो जाएगा?
आश्चर्य होता है कि छोटी-छोटी बातों पर कई महिला संगठन चिंता जताते हुए आंदोलन पर उतारू हो जाते हैं, लेकिन टीवी के जरिए घर-घर में महिलाओं की जो छवि परोसी जा रही है, उस पर चारों तरफ चुप्पी छाई रहती है। एक तरफ, हम आधुनिकता को महिमामंडित करते हुए उसके दामन को थामे रहना चाहते हैं, तो दूसरी तरफ अंधविश्वास, धार्मिक कर्मकांडों और तांत्रिकों या साधु-महात्माओं की मायावी दुनिया से बाहर नहीं निकलना चाहते। दरअसल, महिला चरित्रों के माध्यम से एक साथ समाज में कई तरह के बदलाव का दौर चल रहा है। बढ़ते बाजारवाद में महिलाओं के जरिए ग्राहकों को आकर्षित किया जा रहा है तो सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने को अस्थिर करने का प्रयास किया जा रहा है। महिलाओं को कीमती कपड़ों और गहनों से सुसज्जित कर उनके अंदर का मैल दिखाने की मानसिकता की असली मंशा क्या हो सकती है? सांस्कृतिक और वैचारिक हमले की बात कही सुनी जाती है। क्या यह सच नहीं है कि कहीं न कहीं घर-घर में ये हमले जारी हैं?