सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी
हमारे आसपास, आंखों के सामने और नाक के ठीक नीचे इतना सब घटित होता रहता है और हम उसके प्रति अनजान बने रहते हैं। हम सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखते, क्योंकि देखना ही नहीं चाहते। इस तरह अपने आसपास की चीजों के प्रति उदासीन बने रहना, उनकी अवहेलना करना, उनको अनदेखा करना संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
अपने आसपास लोगों को सार्वजनिक स्थानों को गंदा करते देखते हैं, पर उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं करते। सड़कों पर बारातों का स्वागत, चाय-नाश्ते, आइसक्रीम और पानी के कप-गिलास वहीं पर फेंकना और हमारा इस सबके प्रति असहाय बने रहना भी संवेदनशून्यता ही है। जो इतना खर्च करते हैं वे साथ में एक ड्रम या बड़ी पॉलीथीन भी तो रख सकते हैं, ताकि जूठे कप और गिलास उनमें डाले जा सकें? बाजार में खाने-पीने की चीजें लेना और जूठे दोने या कप वहीं फेंकना और कभी-कभी उसमें बचा हुआ खाद्य पदार्थ भी फेंक देना आम है।
शादी-समारोह में पंद्रह-बीस मिठाइयां, पांच-सात नमकीन और चाट के अलावा मुख्य भोजन का मतलब यह नहीं है कि आप सभी कुछ अपनी प्लेट में भर लें और फिर ढेर सारा जूठा छोड़ें। इतने पकवान इसलिए बनाए जाते हैं कि आपको जो अच्छा और रुचिकर लगे वही लें, न कि सभी लोग सभी चीजें लें। आप यह करते हैं या दूसरों को करते हुए देखते हैं, पर आपको इसमें कुछ अनुचित या गलत नहीं लगता! विदेशों में खाना फेंकना अपराध है, पर हमारे देश में लगता है यह फैशन बन गया है।
हम आसपास के लोगों, यहां तक कि पड़ोसियों के प्रति भी लापरवाही की हद तक बेपरवाह हैं। क्या यही प्रगतिशील और विकासशील युग की विशिष्टता है कि मानवीय मूल्यों और संबंधों के प्रति हम इतने संवेदनशून्य हो जाएं कि सुख-दुख में भी किसी के काम न आएं? आज इंसानी रिश्ते ही नहीं, पारिवारिक रिश्ते भी टूटते जा रहे हैं। संपत्ति, खुदगर्जी और दूसरों की अपेक्षा अधिक तरक्की करने की लालसा ने सगे-संबंधियों को भी एक-दूसरे से अलग कर दिया है। यहां भी संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा नजर आती है। मां, पिता, भाई, बहन सभी बिसरा दिए जाते हैं। धन-संपत्ति और लालच ने लोगों को बेमुरव्वत बना दिया है। किसी का किसी से संबंध ही नहीं रहा। यह भी तो संवेदनहीनता ही है।
अभी कुछ दिन पहले की बात है। दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक वृद्ध महिला अपने सामान के साथ बैठी थी। सुबह से शाम तक वह अकेली बैठी रही, निराश, हताश। इंतजार करते-करते उसकी आंखें पथरा गर्इं। उसके पति गुजर चुके थे और वह गुड़गांव में अकेली रहती थी। बेटा विदेश में कहीं था। उसने आकर मां से कहा कि वह अकेली भारत में रहने के बजाय घर बेच कर उसके साथ विदेश में ही रहे। बेचारी बेटे की बातों में आ गई। बेटे ने घर बेच कर सारा पैसा अपने खाते में जमा कर लिया और मां को हवाई अड्डे पर बैठा कर यह कह कर गया कि वह टिकट लेकर आता है। फिर गायब हो गया। बेचारी बूढ़ी मां को यह भी नहीं पता था कि उसका बेटा विदेश में कहां रहता है। आखिर उसे वृद्धाश्रम पहुंचाया गया!
दूसरी घटना उज्जैन के वृद्धाश्रम की है। वहां के संचालक ने एक गंभीर रूप से बीमार वृद्धा की बेटी को सूचित किया कि वृद्धा की हालत खराब है और वह बमुश्किल दस-बारह दिन की मेहमान है, वह उसे घर ले जाए। बेटी आई और मां को ले गई। मगर दस-बारह दिन बाद उसे वापस वृद्धाश्रम में ही छोड़ गई और कहा कि उसने इस दौरान अपनी मां पर जो खर्च किया है उसके एवज में उसने उसके गहने रख लिए हैं। इसके दो-चार दिन बाद ही वृद्धा गुजर गई!
आपसी संबंधों की कैसी दुर्गति हुई है कि कोई किसी का नहीं रहा। न बेटा बाप का, न बेटी मां की और न ही भाई भाई का। आपसी संबंध टूट रहे हैं और लोग आसपास ही क्या, घर में भी किसी घटना से विचलित नहीं होते। उन्हें अपने अलावा किसी से कोई मतलब नहीं रह गया है। चाहे खाने-पहनने का मामला हो या धन संपत्ति का। यह बढ़ती संवेदनशून्यता नहीं तो क्या है! कहते हैं कि जानवर भी अहसान मानते हैं, पर हम हैं कि अहसान फरामोश होते जा रहे हैं।
क्या यह सब हमारे मतलबी होते जाने और आत्मकेंद्रित या खुदगर्ज होते जाने का परिणाम है या बढ़ते लालच और धन-संपत्ति की भूख कभी न खत्म होने का नतीजा? आंख, कान और विवेक सभी बंद रखते हुए हम आखिर कैसा जीवन जी रहे हैं, जहां मानवीय संवेदनाओं और इंसानी रिश्तों के लिए कोई स्थान ही नहीं है। हम भौतिक गुणा-भाग में इतने गहरे उतरते जा रहे हैं कि इंसानी जज्बातों की आहट तक नहीं सुन पाते। जीना और जीने देना क्या गए जमाने का जुमला हो गया है?
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