भाषा में शब्द वे प्राथमिक साधन हैं, जिनसे हम इस दुनिया को समझना शुरू करते हैं। यह बात कई दिनों से मेरे मन में घूम रही है। तो क्या अभिधा ही सब वस्तुओं और उन वस्तुओं से बने इस संसार को समझने के लिए पर्याप्त है? अगर ऐसा होता, तब कबीर के यहां उलटबासी क्यों है? खुसरो मुकरियां क्यों कहते हैं? परसाई की भाषा में जो तिरछापन है, वह उन्हें कैसे मिला होगा? अगर सीधे कहने से ही काम चल जाता, तब हमारे यहां पंचतंत्र की कहानियां क्यों हैं? कहावतें, मुहावरे, लोकोक्तियां भी वृहतर समाज की संरचना को हमारे सामने रखती हैं। अगर हम यहां बर्नस्टीन का सहारा लेते हुए कहें, तब यह एक तरह की कूटोक्ति है, जिसमें अर्थ के कई पाठ हैं, जिन्हें समझने के लिए उतने ही कौशल की आवश्यकता है, जितना उन्हें गढ़ने में लगा होगा। भाषा अपने आप में इसका गुंजलक है।
इसे थोड़ा सरल करके समझने की कोशिश करें तो अब्दुल बिस्मिल्लाह के एक लघु उपन्यास ‘दंतकथा’ को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। उसके मुख्य पृष्ठ पर एक कलगी वाले मुर्गे की तस्वीर बनी है। वह किसी घर में है और अपनी जान बचाने के लिए नाबदान में घुस गया है। वहां उस अंधेरे में वह अपने छोटे-से जीवन में हुई घटनाओं के अतीत में पीछे लौटता है। वह कभी अपने पैरों पर पानी को महसूस करता है, कभी बाहर निकलने की कल्पनाओं से भर जाता है।
इस रूपक को अगर हम किसी परिदृश्य को समझने के लिए आरोपित कर दें, तब क्या होगा? मुर्गा कौन है? नाबदान से क्या समझा जाए? अतीत में लौटना कहीं भविष्य की अनिश्चितता से अधिक उसके लोप हो जाने की ओर संकेत तो नहीं कर रहा है? हो सकता है कि लेखक का मंतव्य इसे अभिधा में रचना ही हो और वह इस व्यंजना से इत्तिफाक न भी रखे, तब भी उनके कहन में जो परतें और संश्लिष्ट प्रस्थान बिंदु हैं, वे किसी पाठक को किसी दूसरी तरफ ले जाएं, तब क्या किया जाएगा?
इतिहास को इसीलिए एक रचनात्मक कार्य माना गया है। इतिहासकार उपलब्ध साक्ष्यों और अपनी विचारधारा से एक तरह का इतिहास रचते हैं। जो उसका कथ्य है, वही उसका कथ्य क्यों है, इस पर हमेशा सवाल उठाने की जरूरत है। सुमित सरकार या रंजीत गुहा इसीलिए इतिहास को नई नजर से देख पाए। जो राजा-रानी और उनकी लड़ाइयों को आज भी महत्त्वपूर्ण घटना मानते हैं, उनके नवनिर्मित इतिहास ग्रंथों में ये हारी हुई लड़ाइयां विजय का उद्घोष लिए दिख रही हैं। उनके यहां स्त्रियां अभी भी अनुपस्थित हैं। वे दलित और दमित जातियों की तरफ से मुंह फेर कर बैठे हैं। उन्होंने ब्लूमफील्ड को पढ़ा हो या नहीं, पर वे ऐसा करते हुए उनकी स्थापना के बिल्कुल निकट पहुंच जाते हैं। ब्लूमफील्ड ने भाषा पर एक पूरी किताब लिखी- ‘लैंग्वेज’। उसमें वे एक बात कहते हैं कि यह लिखित भाषा, भाषा के अन्य रूपों पर एक तरह का वर्चस्व स्थापित करती है और इसी से हमारा जीवन संचालित होने लगता है। हम दुनिया को इसी तरह बांटते आए हैं। एक वह जो पढ़ना जानते हैं और दूसरे वह जो पढ़ना नहीं जानते हैं। हम इससे एक दूसरे अर्थ की तरफ बढ़ते हैं। और इस अर्थ में इतिहास वह है, जो अनुपस्थित अपने दैनिक जीवन में रच रहा है। बस वह किसी लिखित भाषा में नहीं है।
मैं कुछ समय पहले इन सब बातों से बस एक ही बिंदु पर बार-बार पहुंच रहा था, जिसे महावीर प्रसाद द्विवेदी इतिवृत्तात्मकता (जिसे तब बहुत निम्न कोटि का कार्य माना जाता था) कहते हैं। यानी हमें जो दिख रहा है, जो सामने है, उसे भी कह नहीं पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में उन ब्योरों को कहने के लिए आज हम किस तरह इस उपलब्ध भाषा को गढ़ें? हमें इस बात को समझना होगा कि जो हमें प्रत्यक्ष दिख रहा है और जो घटित हो रहा है, उसमें कुछ तो ऐसा है जो भविष्य के लिए इस आज में वैसा का वैसा बचा कर रख लेना होगा।
सोचता हूं, भाषा को और उसके शब्दों में छिपे अर्थों के अवमूल्यन के इस समय में क्या हमें नई भाषा की जरूरत है, या फिर पुरानी भाषा से काम चल सकता है? मुझे लगता है कि भाषा अपने आप में बहुत बड़ी चीज नहीं है। बड़ी बात है हमारी विश्व दृष्टि। हम किस तरह आने वाले वक्त को देखना चाहते हैं और उसके उपयोगकर्ता के रूप में हम ‘हां’ या ‘नहीं’ के रूप में क्या उत्तर स्थित करते हैं, यह सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है कि हम कहां पहुंचेंगे। हमें अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि क्या हम ऐसे प्रयोक्ता हैं!