प्रेमपाल शर्मा
बड़ी विचित्र स्थिति है। सरकारी नौकरी से रिटायर मैं हो रहा हूं, हलचल आसपास हो रही है। कल एक फोन आया, कुछ दुख में डूबा-सा, ‘अब तो आप जल्दी रिटायर हो जाएंगे, अब तो कुछ कर दो। दो छोरे हैं किसी को भी लगा जाओ। जीवन भर गुण गाएंगे।’ पूरी सरकारी उम्र में मैं यह सुनता रहा हूं। शायद इस देश का हर सरकारी आदमी सुनता होगा। सरकारी नौकरी ही ऐसी है, जिसकी सुविधाएं, आराम, ताकत लोगों की नजरों में खटकते रहते हैं और इसीलिए उसमें घुसने के लिए हर तरकीब साम, दाम, दंड, भेद से जुटे रहते हैं। खासकर हिंदी पट््टी के राज्यों के नागरिक। कितना भी समझाओ, भाई पढ़ो, टेस्ट पास करो, लेकिन जैसे सब पानी पर लकीर। पिछले दर्जनों बार की तरह उन्हें फिर से समझाया कि चौटालाजी ऐसी ही नौकरी दिलाने के चक्कर में जेल में हैं और उन्हीं के साथ उनके कई अधिकारी भी। कुछ दिनों पहले एक माननीय संसद सदस्य भी अपने एक रिश्तेदार को डॉक्टरी में दाखिले के चक्कर में जेल काट रहे हैं। क्या आप भी मुझे जेल भिजवाना चाहते हो, शायद उन्होंने ये बातें सुनी ही नहीं। देश की ज्यादातर जनता को इस पर अगर यकीन नहीं आता तो कुछ न कुछ तो घोटाला तंत्र की भर्तियों में होता ही होगा।
पिछले हफ्ते हमारी सोसायटी में काम करने वाला लड़का पैरों की तरफ लपका। अब तो आप रिटायर होने वाले हैं। मैंने बैंक में चपरासी के लिए रोजगार कार्यालय से पैसे देकर कॉल लेटर निकलवाया है। मेरी अम्मा कह रही थीं कि जाते-जाते तो कुछ कर जाओ। कमाल है, इसे किसने बताया! मेरी तो सरकारी और असली उम्र में भी अंतर है। क्या करें, क्या न करें, बड़ा नाजुक, नैतिक प्रश्न है। दस साल पहले गांव में पुस्तकालय खुलवाने के संदर्भ में एक जिलाधिकारी भी साथ थे। पड़ोस की एक चाची अपने बेटे के साथ अगले दिन दिल्ली हाजिर थीं। ‘डीएम को कह दो तो इसे अपनी कोठी पर रख लेंगे।’ इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने लगभग चेतावनी दी कि ‘दुनिया ऐसे लोगों को याद करती है, जो कुछ भला काम करते हैं, वरना रिटायरमेंट के बाद कोई नहीं पूछता।’ यानी दस साल पहले ही वे मुझे धमका कर भला आदमी बनाना चाहती थीं। इन चाची का पूरा परिवार ऐसी ही सिफारिशों, घूसखोरी के बूते कामयाब रहा है। वह चाहे बोर्ड की परीक्षाओं में रिश्वत से नंबर बढ़वाना हो या उत्तर प्रदेश में पुलिस से लेकर स्कूलों में बच्चों की नौकरियां फिट करना!
वाकई आज जिस रूप में समाज है उसके लिए क्या सरकार और सरकारी कर्मचारी दोषी नहीं हैं, जिनके कारनामों से समाज ने ऐसी उम्मीदें पाली हैं। देश के भर्ती बोर्ड के किस्से हों या विश्वविद्यालयों की नौकरियां- शिक्षामित्र से लेकर ग्राम सेवक तक ऐसी ही सिफारिशों के बूते रखे जाते रहे हैं। न प्रेमचंद की ‘नमक के दारोगा’ कहानी का इस समाज पर कोई असर हुआ, न बार-बार घोटालों में पकड़े गए अधिकारियों, कर्मचारियों को मिली सजा का। भारत महान की हम कितनी भी चरित्र गाथाएं अपनी पीढ़ियों को सुनाते रहें, हकीकत यही है कि हम दिन-प्रतिदिन और बड़ी बेईमानियों की तरफ बढ़ रहे हैं। वरना क्या सरकारी नौकर अपने करीबियों को कोई सरकारी माल लुटाने के लिए होता है? उसकी तरफ लालच से देखा भी क्यों जाए। वह चाहे नौकरी के रूप में हो या ठेका दिलवाने और दूसरी सुविधाएं। सरकार का कोई भी पद छोटा या बड़ा नहीं होता, बशर्ते आप उसका दुरुपयोग न करें। आप अपने आसपास फैले चंपुओं, रिश्तेदारों के लिए दूसरों के साथ अन्याय करके अगर कुछ बांटते हैं तो यह सरकार और समाज दोनों के लिए कलंक है।
इस पैमाने पर मुझे हिंदी पट्टी की सड़ांध और भी बुरी लगती है, जहां राजनीतिक सत्ता से लेकर नौकरशाही, बुद्धिजीवी, उपकुलपति तक अपने लोगों द्वारा अपने लोगों के लिए ही काम करते हैं। अपने कार्यालय के अंतिम दिनों में सरकारी खजाने से ऐसी अशर्फियां लुटाने की ही तो आजादी मंत्रियों और नौकरशाहों को रही है। कई मंत्रालयों के मंत्री बदलते ही लाखों के पुरस्कार की पोल अभी पिछले दिनों मीडिया में छाई रही थी। मनमोहन सिंह, नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्रियों में लाख दूसरी बुराइयां हो सकती हैं, लेकिन अगर उनके आसपास के रिश्तेदार, परिवार का जीवन वैसा ही रहा जैसा इनके प्रधानमंत्री बनने से पहले था तो व्यक्तिगत स्तर पर यह भी कम बड़ी बात नहीं है। लेकिन ये इक्का-दुक्का उदाहरण हैं। ज्यादातर तंत्र उन लोगों से भरा हुआ है, जो रिटायरमेंट से पहले जल्दी से जल्दी देश को गरीब बनाने और संस्थाओं का कबाड़ा करने की कीमत पर अपने आसपास के लोगों को खुश करना चाहते हैं। शायद रिटायरमेंट के बाद कुछ बदले में पाने की इच्छा से। अगर जनता हमें ऐसे लालच या स्वार्थ से देखती है तो यह उसका कसूर नहीं है।
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