राजकिशोर
भूकम्प कैसे आता है, यह जब तक हमें पता नहीं था, इसके बारे में तरह-तरह की कहानियां थीं। एक कहानी यह थी कि धरती शेषनाग के फण पर स्थित है और जब वह राहत के लिए फण बदलता है, तब धरती कांप उठती है। महात्मा गांधी मानते थे कि जब धरती पर बहुत ज्यादा पाप फैल जाता है, तब भूकम्प आता है। दुनिया की दूसरी आबादियों ने भी ऐसे किस्से बना रखे होंगे, क्योंकि भूकम्प इस मिथक को तोड़ता है कि धरती एक स्थिर बनावट है। हम पृथ्वी को जैसा जानते हैं, भूकम्प के बाद वह ज्ञान संदिग्ध न हो जाए, इसलिए भूकम्प के बारे में कोई न कोई कहानी गढ़नी पड़ती है।
लेकिन धर्मवीर भारती ने ये पंक्तियां उपर्युक्त कारण से नहीं लिखी होंगी- सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी। वे जिस सृजन की बात कर रहे हैं, वह सांस्कृतिक है। भारती का आशय यह है कि मनुष्य का सांस्कृतिक निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है, इसलिए सृजन का काम जारी रहना चाहिए। इस सृजन को धरती के सृजन से भी जोड़ा जा सकता है। दरअसल, धरती अभी अधबनी है। उसका निर्माण पूरा नहीं हुआ है। वह बनने की प्रक्रिया में है। और यह बनना काफी गहराई तक जाता है, जिस पर पृथ्वी की देह टिकी हुई है।
वास्तव में, खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार यह पूरी सृष्टि ही अधबनी है। यानी वह भी निर्माण की प्रकिया में है। कुछ लोगों का कहना है, सृष्टि का विस्तार हो रहा है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य, चंद्र, तारे- इनमें से कोई भी स्थिर नहीं है। वे या तो बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं। जिस दिन प्रकृति का यह चक्र टूट जाएगा, सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा और कुछ भी पहले की तरह नहीं रह जाएगा। उस दिन पृथ्वी भी नहीं बचेगी। क्या इस सबके पीछे कोई योजना या व्यवस्था है? सैकड़ों वैज्ञानिक इसी प्रश्न से जूझ रहे हैं।
जिस पृथ्वी को हम जानते हैं, वह तो वैसे भी नहीं बचेगी। कई बार हिम युग आ चुके हैं जब सब कुछ बर्फ से ढका था, न हमारे पूर्वज थे न आप के। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तेजी के साथ पृथ्वी गरम हो रही है, सारे हिमशिखर पिघल जाएंगे और समुद्र में इतना पानी आ जाएगा कि वह आसपास की बस्तियों या देशों को प्लावित कर देगा। सूर्य का भी एक दिन अंत होना है, वह भी एक दिन बौना तारा बन जाएगा, और तब धरती पर जीवन नहीं बचेगा। जीवन की तरह मृत्यु का भी एक चक्र है।
इस स्थिति के दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला निष्कर्ष यह है कि सृष्टि की योजना में मानव जीवन या किसी भी प्रकार का जीवन नहीं है। वह एक संयोग है, जिसके रहस्य का पता हमें अभी तक नहीं लग पाया है। लेकिन संयोग पर निश्चितताएं हमेशा हावी हो जाती हैं। जीवन भले ही संयोग हो, पर भूकम्प संयोग नहीं है। धरती पर जीवन रहे या नहीं रहे, भूकम्प आता रहेगा और धरती डोलती रहेगी। हो सकता है, किसी बड़े भूकम्प से वह छिन्न-भिन्न हो जाए और आज जहां पहाड़ है, कल वहां महासागर लहराने लगे।
भूकम्प से लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मरते हैं। वास्तव में, सृष्टि के आकार को देखते हुए धरती के हम लोग कीड़े-मकोड़े भी नहीं हैं, बालू का कण भी नहीं हैं, खाक का जर्रा भी नहीं हैं। अपनी इस स्थिति को हमें हमेशा याद रखना चाहिए और भरसक विनम्र बने रहना चाहिए। बल्कि एक-दूसरे को बधाई देनी चाहिए कि हम जिंदा हैं। यह मृत्यु का जीवनपरक दर्शन है जिससे अध्यात्म का जन्म हुआ है और अब विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचने को बाध्य हैं कि जीवन क्षणभंगुर है; मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं हैं, वे रहस्यमयी शक्तियां खुशी-खुशी हमें ले जाएं जो हमें जन्म देती हैं।
दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि हम प्रकृति के साथ बहुत ज्यादा छेड़छाड़ नहीं कर सकते हैं। जो यह मानते हैं कि हमने धरती की दुर्दशा की है और उसी के कारण भूकम्प आ रहे हैं, वे वास्तव में निर्माता होने के घमंड में हैं। कीड़े-मकोड़े ऐसे घरौंदे नहीं बना सकते जिनसे यह धरती कांपने लगे। वायुमंडल का गरम या विषाक्त हो जाना एक बात है और धरती का डांवांडोल हो जाना दूसरी बात। इसलिए भूकम्प या उल्कापात के सामने हम बिल्कुल असहाय हैं। मानव बुद्धि जरूर ऐसा कर सकती है कि जब ऐसी कोई बड़ी घटना हो, तो हमें कम से कम क्षति हो। जापान जैसे देशों ने ऐसा ही किया है, भूकम्प जिनके लिए बार-बार आ जाने वाला अतिथि है। मरते समय अफसोस नहीं होना चाहिए, पर मरने का शौक भी नहीं होना चाहिए।
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