राजेंद्र उपाध्याय

मसिजीवियों की दिक्कत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। हाल ही में हमारी एक रचना राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ में छपी। आनंद आया। देखने के बाद इधर-उधर रख दी। बाद में ध्यान आया तो खोजने लगा कि कहां गई! आखिर मिली तो देखा कि पीछे की तरफ एक फॉर्म छपा है, जिसे अंगरेजी में भरने पर ही उस रचना का पारिश्रमिक मिलने की सूचना थी। इसमें बैंक, शाखा का नाम, आइएफएससी कोड आदि सब दस खाने में ब्योरे भर कर भेजने थे। पहले रचना छपती थी और भूल जाते थे। कभी-कभी कोई मनीऑर्डर या चेक आ जाता था तो खुशी होती थी। अब तो लिखने के बाद यह सब झमेला। लिखने से पहले बैंक खाता खुलवाओ। फॉर्म के साथ निरस्त चेक भेजने के बारे में भी लिखा था।

आलस के मारे कौन लेखक ये सब करते रहें। पत्रिका कबाड़ में चली गई या कोई मित्र पढ़ने ले गया तो क्या करेंगे? फॉर्म फाड़ने की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इसी फॉर्म के ऊपर लिखा है कि कई लेखकों ने अगस्त 2014 का भी फॉर्म भर कर नहीं भेजा है। मेरे जैसे आलसी सब होंगे। या फिर कुछ ऐसे वयोवृद्ध लेखक गांव में बैठे होंगे, जिन्हें अंगरेजी नहीं आती होगी! उनके बच्चों को यह काम करने की फुर्सत नहीं होगी! वे कैसे और क्यों भिजवाएंगे? चेक भी निरस्त करके लगाओ। चेक-बुक आजकल कौन रखता है! सब एटीएम से पैसे निकालते हैं या पासबुक के साथ पैसे निकालने वाले फॉर्म रखते हैं।

हो सकता है कि हमने बैंक की सारी जानकारी डाल दी, निरस्त चेक भी भेज दिया। लेकिन अगर कोई ‘हैकर’ हमारा खाता ‘हैक’ कर ले तो लेने के देने पड़ जाएं! हजार-पांच सौ के चक्कर में लाखों का नुकसान हो जाए। आजकल तो इंटरनेट बैंकिंग का जमाना है। कंप्यूटर ‘हैक’ करने वाला कोई व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। ‘मधुमती’ पिछले पचपन वर्षों से मासिक निकल रही है। कई तेजस्वी हिंदी लेखक इसके संपादक हुए। फिर फॉर्म अंगरेजी में भरने की अनिवार्यता क्यों?

आजकल सभी बैंकों में यह लिखा रहता है- यहां हिंदी में लिखे चेक स्वीकार किए जाते हैं। फिर राजस्थान साहित्य अकादमी की ‘मधुमती’ क्यों अंगरेजी में मांग रही है? क्या राजस्थान में भाजपा सरकार की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सुन रही हैं?

राजस्थान के उदयपुर में गांव-गांव में लेखक-कवि, मसिजीवी भरे पड़े हैं। वे क्यों इस अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाते। वे सब एक स्वर में लिख कर दें कि हम अंगरेजी में फॉर्म भर कर नहीं देंगे, तो क्या उनकी बात ‘मधुमती’ के कर्ता-धर्ता नहीं सुनेंगे? वे अपना मातृभाषा प्रेम क्यों नहीं दिखाते? वे सब एक साथ अंगरेजी लिखने लगे हैं क्या? ‘मधुमती’ का प्रधान संपादक आइएएस होता है। वह अंगरेजी में ही सारा काम करता है। पर संपादक समिति में तो साहित्यकार हैं! वे इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते? वे क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं? पत्रिका में छपने वाले साहित्यकार भी क्या अंगरेजी के आगे सिर झुका लेंगे?

अगर तमिलनाडु हिंदी अकादमी या कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद् ऐसे फरमान जारी करें, तो बात समझ में आती है। अहिंदी प्रदेशों की यह मजबूरी हो सकती है। हिंदी में यों भी लेखकों को पारिश्रमिक मिलता कितना है! अभी भी सौ-पचास के मनीआॅर्डर आते हैं। उसे डाकिया या चौकीदार ही बख्शिश समझ कर ले लेता है। ‘साहित्य अमृत’ में छपी रचना का पारिश्रमिक इतना कम था कि प्रयागजी को आगे कहना पड़ा कि इससे अच्छा तो आप कोई शब्दकोश ही भिजवा दें, काम तो आएगा! रोज सुबह जब प्रयागजी ‘कागद कारे’ करने बैठते हैं, तो ज्योतिजी कहती हैं कि क्या कर रहे हैं? बेकार काम में लगे हैं फूल-पत्ते गिनने! छप गई तो फोन पर फोन आएंगे, ‘डिस्टर्ब’ करेंगे! साल-छह महीने बाद एकाध चेक आ भी गया तो क्या हो जाएगा?

बात तो ठीक है। लघुपत्रिकाएं ‘फोकट’ में हमसे क्रांति कराती हैं। वे संपादक बड़े-बड़े सेमिनारों में हवाई जहाज से जाते हैं, शोधार्थियों से पैसे लेकर शोधलेख छापते हैं ताकि ‘वाय वा’ के समय उनके काम आए। पारिश्रमिक देना तो दूर, उलटे पैसे लेकर छापते हैं। आप केंद्रीय हिंदी संस्थान या फिर दिल्ली सरकार से, जहां-तहां से पैसे लेकर पत्रिका छाप कर महावीर प्रसाद द्विवेदी हो जाएंगे और लेखक पत्रिका भी खरीद कर पढ़े! दूसरी ओर, हमारे दिल्ली के लेखक अंगरेजी की गोष्ठियों और अंगरेजी के अखबारों में चर्चित होकर फख्र महसूस करते हैं। फेसबुक पर हिंदी के कुछ लेखक अपनी किताबों के अंगरेजी अनुवाद ही बताते-चिपकाते रहते हैं।

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