अरुणेंद्र नाथ वर्मा
उस दिन लगातार तीन-चार दिनों से मेघाच्छन्न रहा आकाश निरभ्र होकर चांदनी में नहा उठा था। वायुमंडल का सारा प्रदूषण धुल चुका था। संध्या पूनम की रात में बदल रही थी। फिर भी पूरब से निकलते भरे पूरे चंद्रमा के आगे पश्चिम के क्षितिज पर शुकवा या शुक्र धूमिल नहीं लग रहा था। कई मुंहजोर तारे भी चांदनी के आगे नतशीश होने को तैयार नहीं। ‘इतना स्वच्छ आकाश फिर जाने कब मिलेगा’ सोच कर वे भी अपनी छटा दिखाने को आकाश में कूद पड़े थे। लगता है कह रहे हैं- ‘आकाश है तो सिर्फ चांद नहीं, तारे भी रहेंगे। उदास रह कर नहीं, मुस्कराते हुए रहेंगे।’
चांदनी चटक हो तो दिल्ली के धूसरित आकाश में भी दिख जाती है, भले थोड़ी धूमिल लगे। पर ये जगर-मगर करते तारे यहां उन्मुक्त होकर अपना सौंदर्य कब दिखा पाते हैं। बारहों महीने तो उनके मुखड़े पर प्रदूषण का आवरण पड़ा रहता है। मैं सशक्त चांदनी को भूल कर आकाश में उन मासूम तारों की तलाश में लग जाता हूं, जो इन स्वस्थ, मुंहजोर तारों की तरह नहीं हैं। जिन्हें चांदनी के आगे अपनी अस्मिता खो जाने की इतनी वेदना है कि कहीं अकेले में छिपे बिसूर रहे हैं, पर धृष्ट, अहंकारी चांदनी के सामने आने से खौफ खा रहे हैं।
याद आता है बहुत पीछे छूट गया बचपन, जो रह-रह कर यादों के कुहासे में टिमटिमाता है। मानो घने कुहरे में रेल की पटरी के किनारे दूर छूट गए स्टेशन की बत्तियां हों। इस कुहासे में छिपी अधिकतर तस्वीरें धूमिल हो गई हैं, पर कई अब भी जगर-मगर करती हैं। जो बहुत हाल की हैं, वे सबसे पहले धुंधली पड़ रही हैं। जो कई वर्ष पुरानी हैं वे सीपिया रंग की हो रही हैं।
अभी कुछ वर्ष पहले न्यूजीलैंड में वायटोमो की गहरी भूमिगत कंदराओं में छत पर चिपके आकाशगंगा सरीखे लाखों जुगनुओं को देखा, तो सोचा था पत्थर पर उकेरे चित्र की तरह स्मृति पटल पर वे सदा अमिट रहेंगे। पर अब वे याद आते हैं तो केवल तब जब न्यूजीलैंड की चर्चा हो। उनसे अधिक तो उत्तर बंगाल के जलदापारा वन्यप्राणी उद्यान से सटा हासीमारा का वायुसेना स्टेशन यादों में उभरता रहता है, जहां तीस साल पहले वायुसेना में नियुक्ति मिली थी। वहां साल में छह महीने होने वाली घनघोर वर्षा का अनवरत प्रहार जब थम जाता तो स्तब्ध घोर अंधेरे में चमकते हुए हजारों जुगनू कितने रहस्यमय लगते थे! मेघाच्छन्न आकाश में तारे कहां दिखते! उनकी जगह वे जुगनू यादों में अक्सर चमकते हैं।
मगर सबसे पुरानी यादें हैं गंगातट पर अधनींदे पसरे हुए गाजीपुर के प्रदूषणमुक्त आकाश में जगमगाते तारों की। आज भी शीशे की तरह साफ है, ‘गंगाजी’ के किनारे किसी मछुआरे की डोंगी में लेट कर उन्हें निहारने की याद। तब गंगा भी स्वच्छ होती थी और उसके ऊपर तना वितान भी। उस निर्मल आकाश में बड़े तारे, छोटे तारे सब मिल कर रहते थे। वैसे ही जैसे उस कस्बानुमा शहर में गरीबों-अमीरों के रहने के लिए दिल्ली की तरह अलग-अलग मोहल्ले, कॉलोनियां नहीं थीं।
साठ-पैंसठ वर्ष पहले गंगा का आंचल आज जैसा मैला नहीं था। ऋतुएं बदलती थीं, गंगा के परिधान बदलते थे। हर ऋतु में गंगा की निर्मल धार और उसके किनारे बिछे बलुआ खेतों का आंचल कितना ममतामय लगता था। राजकीय विक्टोरिया हाई स्कूल में हेडमास्टर जटी साहब की बेंत और अशरफुल्लाह मास्टर साहब की कान मरोड़ने में महारत को भुला कर, स्कूल से भाग कर, सर्दियों में गंगा किनारे चने-मटर के खेतों में घूमना, गरमियों में अनायास उग आए द्वीपों में ककड़ी-खरबूजे की फसल पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझना और बरसात के दिनों में बाढ़ में उफनती, फुफकारती मटमैली गंगा को किनारे बने पुश्तों से निहारना कल की बात लगती है। गंगातट के सम्मोहन में बंध कर गोधूलि तक घर वापस आ जाने का निर्देश प्राय: भूल जाता था। फिर धूल-धूसरित पांवों को पंजे के बल रखते हुए चुपके से घर में घुसने का उपक्रम करते हुए पकड़े जाने पर डांट पड़ती थी- ‘रात घिर आई, तारे निकल आए, इतनी देर तक कहां घूम रहे थे?’
गाजीपुर के घर में तब बिजली नहीं थी। सिर ऊपर उठाते ही आकाश में बिखरे लाखों तारे टिमटिमाते हुए दिखते थे। ‘गंगाजी’ का तिलिस्म टूटता था तो आकाश का जादू सिर पर चढ़ कर बोलने लगता था। गंगा किनारे का वह भटकना, तारों का वह रहस्यमय सौंदर्य निहारना किसी तरह से स्मृति पटल पर धूमिल नहीं पड़ता है। वायटोमो और जलदापारा में दिखी हजारों जुगनुओं की जगमगाहट भूल सकती है, पर सबसे चमकीले रंगों में जगर-मगर करती बचपन की वे यादें अविस्मरणीय हैं, क्योंकि उनमें तारों का जादू था।
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