प्रयाग शुक्ल

कभी-कभी कोई झुरमुट, पौधों का पुंज, कोई कोना अपनी ओर इस तरह खींचता है कि उसमें किसी अरण्य जैसी स्मृति शामिल हो जाती है। सो, देख रहा हूं कि भारत भवन, भोपाल की सिरेमिक कार्यशाला के ठीक सामने, झील के किनारे की ओर, तीन-चार पौधों की डालियों-टहनियों-पत्तियों का एक ‘घेरा’ अच्छी छाया किए हुए है, और उसके भीतर चिड़ियां फुदक रही हैं। अपनी बोली से ‘घेरे’ को गुंजायमान किए हुए हैं। वहां उनके चुगने के लिए भी कुछ न कुछ है ही। कार्यशाला में काम करने वाले कलाकार इसी के पास बैठ कर ठंड के दिनों में भोजन करते हैं और गिलहरियों और चिड़ियों के लिए उनके भोजन में से कुछ न कुछ बच ही जाता है। हम भी धूप में, दोपहर के भोजन के कुछ बाद ही यहां पहुंचे हैं। धूप सेंक रहे हैं। और चिड़ियों-गिलहरियों की प्रसन्न मुद्राओं के साक्षी बने हुए हैं। यहां, इस तरह, पहली बार नहीं बैठा हूं। जब से भारत भवन बना है, कोई बत्तीस वर्ष पहले, तब से यहां न जाने कितनी बार आया हूं। कार्यशाला में काम करते हुए कलाकारों को देखा है। उनके काम को सराहा है। पास की भट्ठी में उन्हें ‘पात्रों’ को रखते हुए देखा है। उन्हें पकने की और भट्ठी के खुलने की प्रतीक्षा की है। कितने सूर्यास्त-रंग भी देखे-सराहे हैं।

पर आज की धूप में कुछ ऐसा है, और चिड़ियों-गिलहरियों के खेल में भी कुछ ऐसा, कि यह कोना कुछ अधिक मुग्ध कर रहा है। सहसा याद आ जाती है कलाकार शैलेंद्र की। उनसे पहली बार यहीं मिला था। वे बिहार से यहां आकर काम करने लगे थे। फिर यहीं, भोपाल में, बस गए। विवाह किया यहीं मराठीभाषी कलाकार अर्चना से। एक बेटी है शिंजा, अभी छह-सात बरस की है। इनके ‘सुख-संसार’ को एक बड़ा आघात लगा। भोपाल की कला बिरादरी को भी। शैलेंद्र की कुछ महीनों पहले कैंसर से मृत्यु हो गई। शैलेंद्र का वही स्वस्थ, सजीव, विनम्र, सांवला चेहरा उभर आया, जब पहली बार उनसे मिला था। मैं झुरमुट की ओर देखने लगा। यही लगा जैसे उस झुरमुट में अपनी पीड़ा सिरा रहा हूं। सिरेमिक कार्यशाला के एक लंबे समय से ‘प्रमुख’ रहे, सामने बैठे कलाकार देवीलाल पाटीदार की ओर देखा। क्षण भर को लगा, उनसे एक बार फिर कुछ कहना चाह रहा हूं, शैलेंद्र की याद में। पर, तभी कुछ युवा कलाकार आ गए। वह क्षण बीत गया। पाटीदार गुणी हैं। निपुण हैं। माटी से उनका संबंध पुराना है। न जाने कितने युवा कलाकारों को उनका मार्गदर्शन मिला है।

जो युवा कलाकार अभी मिले, उनमें समीक्षा भी थी। भोपाल के ही एक प्रतिभा संपन्न मूर्तिशिल्पी नीरज अहिरवार से विवाहित है। कुछ देर पहले ही पाटीदारजी से उसके नए काम की प्रशंसा की थी। माटी में ही रच ली गर्इं सुतलियों-डोरियों जैसी ‘डोरियों’ से उसने छोटे-छोटे घट रूपी ‘पात्रों’ और कुछ अन्य पात्रों की सुंदर रचना की है। यहीं, और अपने घर-स्टूडियों में काम करने वाली निर्मला शर्मा, गिरिजा वायंगकर और कुछ अन्य कलाकारों से भेंट होती है। जब भी यहां आता हूं, इन सबके काम देखता हूं। प्रसन्न होता हूं। भोपाल अब यों भी सिरेमिक कलाकारों के काम से बराबर तरंगित लगता है। शंपा शाह जैसी प्रखर, संवेदनशील, साहित्य-कला अनुरागी शिल्पी, अपने घर पर ही काम करती हैं। पर भारत भवन की सिरेमिक गतिविधियों में भी हिस्सा लेती हैं। घर पर ही, भट्ठी भी बना ली है।

इस वक्त हमारे साथ बांग्ला कवयित्री अनुराधा महापात्र भी हैं। कल कुछ अन्य बांग्ला कवियों के साथ उनका कविता पाठ था। भारत भवन में। उन्हें भी सिरेमिक कार्यशाला और उसके सामने का ‘कोना’ बहुत तृप्तिदायक लग रहे हैं। आंखों को एक स्वप्नशीलता, और कला-सौंदर्य से भर देने वाले। निर्मला शर्मा से तो परिचय चालीस वर्षों से अधिक का हो चला है। वे हमारे प्रिय कवि-लेखक मित्र (अब दिवंगत) जितेंद्र कुमार की पत्नी हैं। जब से हम भोपाल वाले अपने घर में, वर्ष में दो-चार बार आकर रहने लगे, तब से उन्हें ‘अभिभावक’ कहना शुरू कर दिया है। वे किसी भी कलाकार, मित्र-परिजन, किसी की भी, कैसी भी समस्या को सुलझाने के लिए हर समय तत्पर लगती हैं। उनकी सिरेमिक कृतियों में लगातार निखार आता चला गया है।

मैं और अनुराधाजी फिर उसी ‘आरण्यक कोने’ के पास आकर बैठ जाते हैं। सिरेमिक माध्यम की खूबियों की चर्चा उनसे होती है। ‘माटी तेरे रूप अनेक’ की। निर्मलाजी के झंझरियों वाले घट और गोल, वर्तुलाकार, त्रिभुजाकार पात्र, सहसा उभर आते हैं। वे प्राय: अपने सुंदर घटों पर जितेंद्र कुमार की कविताएं भी अंकित करती हैं। झुरमुट में चिड़ियों-गिलहरियों का ‘खेल’ अनवरत जारी है। अनुराधाजी से चर्चा करता हूं कि अप्रतिम बांग्ला कवि-बुद्धिजीवी शंख घोष की पंद्रह कविताओं का अनुवाद उन्हीं के साथ बैठ कर झील के इसी किनारे किया था 1983 में; कि वह भी यह सिरेमिक कार्यशाला देखने आए थे। प्रसन्न हुए थे।

स्वामी (स्वामीनाथन) से जुड़े हुए कुछ संस्मरण उन्हें सुनाता हूं। उनके द्वारा किए गए ‘रूपंकर’ संग्रहालय की लोक-आदिवासी कृतियों के संग्रह से जुड़ी कुछ कथाएं भी इस स्मरण में चली आती हैं। पाटीदारजी भी उन दिनों की याद में कुछ खो-से जाते हैं। वे भी अपने कुछ संस्मरण सुनाते हैं। अनुराधाजी कहती हैं, ऐसे ‘कुछ क्षण’ हम सबके जीवन में कभी-कभी ही आते हैं। वे भी इस कोने पर मुग्ध हैं। समीक्षा कहती है, कुछ पात्र उसने क्लिन (भट्ठी) में पकने के लिए रख दिए हैं। मैं कहता हूं पक जाने पर देखूंगा। कुछ दिन भोपाल में और हूं।

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