शुभू पटवा

जब से समाज बना है, तभी से हम हिंसा और अहिंसा की बात सुनते आ रहे हैं। हमारे मनीषियों, साधकों और तपस्वियों ने अहिंसा और हिंसा पर खूब बातें कहीं और हमें समझाया है। पर हमारे विचारकों-मनीषियों ने क्या अहिंसा को नकारात्मक रूप में ही स्वीकारा है? अलबत्ता इसकी उपादेयता और महत्त्व को कभी नकारा नहीं गया है और न कभी इसे कमतर ही माना गया। लेकिन यह समझ पाना कठिन है कि यह नकारात्मक कैसे है?

भाषा की दृष्टि से अगर हम इसे नकारात्मक मानें तो मानें, शेष तो किसी भी रूप में अहिंसा को नकारात्मक नहीं ठहराया जा सकता है। हम कहते-सुनते रहे हैं कि ‘अहिंसा जीवनी शक्ति है’, ‘अहिंसा अनुपम उपहार है’, ‘अहिंसा जीवन का आधार है’, ‘मनुष्य को सदा अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिए’ आदि। तब इनमें नकारात्मकता कहां है? और इससे अधिक सकारात्मकता क्या हो सकती है? ठीक इसके विपरीत हिंसा मत करो, प्राणियों को मत सताओ आदि बातें भी हमारे सामने हैं। तब फिर नकारात्मकता या सकारात्मकता का निर्णय हम किस तरह करते हैं? इसलिए यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि बुनियादी रूप से ‘अहिंसा’ सकारात्मक है। चिंतन-मनन और आचरण के स्तर पर भी।

इसी तरह अहिंसा को निवृत्तिमूलक भी मान लिया गया है। जैन परंपरा में प्रवृत्ति और निवृत्ति पर गहन चिंतन-मनन हुआ है। श्रमण भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप-साधना से भरा था। यह भी स्वीकार किया गया है कि वे निवृत्ति की ओर ही अग्रसर रहे। श्रमण महावीर के दर्शन और चिंतन के आधुनिक भाष्यकार आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने भी इसे स्वीकारा है। लेकिन वे यह भी कहते रहे हैं कि हम प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं, भोग से त्याग की ओर जाते हैं। तब फिर इसका क्या यह अर्थ नहीं लें कि प्रवृत्ति का अपना अस्तित्व है और इस ओर आए बिना कोई निवृत्ति की ओर जा ही कैसे सकता है? इसलिए प्रवृत्ति और निवृत्ति साथ-साथ चलने वाली क्रियाएं हैं। इनका पृथक्करण किसी बिंदु पर अगर होता भी है, तो उसे पकड़ पाना जरा कठिन है। यह भी माना जाता है कि साधना की एक अवस्था ऐसी भी आ जाती है, जहां निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों ही से मुक्त हुआ जा सकता है। वीतराग अवस्था यही है। गांधी की प्रवृत्तियों में अहिंसा की झलक ही नहीं मिलती थी, बल्कि अहिंसा के साथ उनकी सब प्रवृत्तियां आगे बढ़ती थीं। हम कह सकते हैं कि महात्मा गांधी ‘प्रवृत्तिमूलक अहिंसा’ के सजग प्रयोगकर्ता थे। वे प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति की ओर बढ़ने वाले महत्तमों में से एक थे।

इस तरह हम पाते हैं कि ‘अहिंसा’ नकारात्मक नहीं है, तो मात्र निवृत्तिमूलक भी नहीं है। यह प्रवृत्तिमूलक भी है और सकारात्मक भी। लोक में यह आज तक इसीलिए व्याप्त है। हिंसा की तरह अहिंसा का भी लोप असंभव है। ये दोनों साथ-साथ हैं, पर इनको सहगामी नहीं कहा जा सकता। दोनों का अस्तित्व अपनी-अपनी धुरी पर टिका रहने वाला है। तब भी हिंसा को महिमामंडित कभी नहीं किया जा सकता है। जाहिर है कि हिंसा को नकारात्मक ही कहा जा सकता है। यह भी सर्वविदित है कि एक हिंसक कभी भी अपने को हिंसक नहीं कहेगा। ऐसे ‘विशेषण’ से सदा बचने का प्रयत्न करेगा। इसीलिए हिंसा हमेशा किसी आवरण के साथ ही होती है। ठीक इसी तरह हिंसा करने वाला भी अपने को इसका शिकार न होने के उपाय भी करता है।

यह भी कहा जा सकता है कि हिंसा सदैव विवशतावश की जाती है। लोभ और भय के वशीभूत होकर भी हिंसा होती है। इसलिए इसे दुष्प्रवृत्ति कह सकते हैं। अगर हम समाज हैं, तो इस दुष्प्रवृत्ति से पूरी तरह मुक्त हो जाएंगे, यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। तब यही कहना शेष रह जाता है कि इसे अधिकाधिक हिकारत से देखें। अपने आचरण, व्यवहार और दैनंदिन क्रियाकलापों में अहिंसा का अविराम समावेश होता रहे, हम यह सुनिश्चित करें। अहिंसा धर्म है, यह तो मानें, पर यहां धर्म को किसी ‘आभूषण’ की तरह नहीं देखें, न धारण करें। धर्म का अर्थ कर्तव्य है, बस यह स्वीकार भर जरूरी है। पर इस स्वीकार भर से ही बात परवान नहीं चढ़ सकती। अहिंसा हमारे आचरण, हमारे व्यवहार और दैनंदिन क्रियाकलापों का हिस्सा कैसे बने, यह विचार होना जरूरी है। अहिंसा साधना का हिस्सा है और रहेगा भी, पर साधना के साथ-साथ हमारी हर प्रवृत्ति में भी यह झलके। लोक में जो कुछ व्याप्त है, जब उसका सकारात्मक रूप अधिकाधिक सुदृढ़ होने लगेगा तो नकारात्मकता का क्षरण सहज होने लगेगा। अहिंसा की व्याप्ति के लिए सकारात्मकता और प्रवृत्ति-निवृत्ति को समझते हुए ही अग्रसर होना चाहिए।

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