गिरिराज किशोर

चौबीस मार्च को प्राइम टाइम में एनडीटीवी पर हाशिमपुरा के नरसंहार पर चर्चा थी। उसमें हिस्सा लेने वालों में उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री अंबिकाजी थे, कांग्रेस के प्रवक्ता अखिलेश सिंह थे, पीड़ित पक्ष की वकील वृंदा ग्रोवर थीं, शिक्षक हलाल साहब थे, हत्याकांड से बच कर आए नासिर साहब थे, और भाजपा के नरसिंहा राव जी थे। अंत में गाजियाबाद के तत्कालीन एसपी विभूतिनारायण राय ने कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। अदालत का फैसला समाज के लिए पचाना कठिन हो रहा है।

समाचारपत्रों में इस फैसले के कुछ अंश पढ़ने को मिले। जब यह कांड हुआ तो कांग्रेस सरकार सत्ता में थी, दो साल तक रही। बाद में सपा और बसपा सरकारें रहीं। जिस तरह सबूत मिटाए गए ताज्जुब होता है। जिस पीएसी ट्रक में लोगों को हत्या करने के लिए ले जाया गया उसे धो डाला गया था। ट्रक से लाल पदार्थ टपक रहा था। उसकी जांच तक नहीं कराई गई। ट्रक का नंबर तक नोट नहीं किया गया। यही नहीं, जो राइफलें जांच के लिए भेजी गईं थीं वे किन लोगों से ली गईं, उनके नाम तक शासन को पता नहीं थे। कातिलों की पहचान तक नहीं कराई गई। राइफलों को सील नहीं किया गया था।

कांग्रेस के प्रवक्ता जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थे। सपा सरकार के काल में मारे गए लोगों के घर वालों को मुआवजा टुकड़ों-टुकड़ों में बांटा गया (जबकि सपा सरकार लाखों रुपए उत्सवों और पुरस्कारों में बांट देती है)। यह बात नासिर साहब ने बताई जो उस जनसंहार से बच कर भाग निकले थे। कांग्रेस सरकार के काल में हत्याएं हुई थीं। लेकिन बावजूद पार्टी प्रवक्ता के जवाबदेही मानने पर, न तो इस बात का कोई जवाब था कि तफ्तीश में की गई लापरवाही का जिम्मेवार कौन है, न इस सवाल का कि तत्कालीन प्रधानमंत्री उस स्थल पर क्यों नहीं गए।
सपा के मंत्री भी संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रहे थे। बसपा का प्रतिनिधि तो था ही नहीं। इतने लंबे समय में तीन सरकारें आई और गईं।
किसी ने न तो इस बात पर ध्यान दिया कि मुकदमे में इतनी देर क्यों लग रही है, न उस पत्रावली की कमजोरियों के बारे में जानने की कोशिश की गई। लगता है कि सरकारें संवेदना-विहीन हो गई हैं। बस सरकारों की प्राथमिकता है कि अपनी जगह बनी रहें। भले ही जनता को उसका कितना भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। भाजापा के प्रवक्ता ने विलंब से फैसला आने और किसी भी दोषी को दंड न मिलने पर बहुत दुख प्रकट किया, पर जब उनसे पूछा गया कि आपकी पार्टी इस बारे में कुछ करेगी, तो वे कांग्रेस और दूसरी पार्टियों पर दोषारोपण करने लगे। भाजपा के प्रवक्ताओं से पूछा कुछ जाता है और वे जवाब कुछ देते हैं। जैसे सिखों के संदर्भ में उन्होंने मुआवजा घोषित किया, यह भी जनसंहार था इसमें भी किया जा सकता था।

विभूतिनारायण राय तब गाजियाबाद के एसपी थे। वे इस घटना से आहत थे। उनकी बात से मैं सहमत हूं कि इस मामले में पुन: जांच कराई जानी चाहिए। चालीस या बयालीस लोगों की नृशंस हत्या की गई थी। अगर यह मान भी लिया जाए कि जिन्हें शक का लाभ देकर छोड़ दिया गया वे निर्दोष हैं, पर हत्याएं तो हुई हैं। किसी ने तो हत्या की ही होगी। अदालत और कानून की यह जिम्मेदारी है कि वे तह तक पहुंचें। अदालत को दिशा-निर्देश भी देना चाहिए था। फैसला देने मात्र से जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। अगर उसका कार्यक्षेत्र सीमित था, वह अपनी संस्तुति ऊपर भेज सकती थी। उसने ऐसा न करके उनके घरवालों को जीवन भर तड़पने की सजा देकर अपनी कलम तोड़ दी, मालूम पड़ता है। कानून जब फैसले आधे-अधूरे देकर छोड़ देते हैं तो वह न फैसले में शुमार होता है और न जनहित में आता है। यह मामला जनहित का था। चंद-हित हो गया, जन-हित अदालत के बाहर खड़ा टाप रहा है। अदालतों और सरकारों के रुख से अक्सर जन के मन में अविश्वास पैदा होने लगता है। लगातार इस तरह के प्रमाण सामने आ रहे हैं।

न्याय के हित में उच्चतम न्यायालय ने मुकदमा उत्तर प्रदेश से दिल्ली में स्थानांतरित किया था। तब तक मामला इतना कमजोर कर दिया गया था कि कोई भी अदालत कुछ नहीं कर सकती थी। यह न्यायपालिका के लिए भी चिंता का कारण होना चाहिए कि अदालतों में जब तक इस तरह के राजनीतिक मामले आते हैं, उनका फैसला पुलिस या संबंधित विभाग लिख चुके होते हैं। झख मार कर अदालत को उनकी लिखी इबारत के आधार पर फैसला देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। उच्चतम न्यायालय को हाशिमपुरा कांड की बाबत दिए गए फैसले का स्वत: संज्ञान लेकर, मामले की अपनी देखरेख में एसआइटी या सीबीआइ से जांच करा कर, उसकी तह तक पहुंच कर, न्याय करना चाहिए। ऐसा करने से अल्पसंख्यकों का प्रकंपित विश्वास लौटेगा।

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