आधुनिकता पर होने वाली बातचीत में जातियों की अहमियत या इससे जुड़ी समस्या के कम होने का हवाला अक्सर दिया जाता है। बताया जाता है कि अब सामाजिक भेदभाव पुराने समय बातें हो चली हैं। लेकिन क्या जाति संरचना और इससे जुड़े तत्त्व सचमुच इस ‘आधुनिक’ समय में धुंधले हो रहे हैं? यह सवाल स्कूल में पढ़ रहे किसी बच्चे से अगर किया जाए तो निश्चित रूप से उसका जवाब सकारात्मक होगा। आखिर उनके स्कूल की किताबें भी यही बताती हैं। लेकिन इन्हीं किताबों को पढ़ कर बड़े होने के बाद लोग अलग-अलग जातियों के दायरे में जीते हैं, जातियों में बंटे संगठन के सदस्य भी हो जाते हैं। सवाल है कि क्या किताबों की बातें अपना प्रभाव मजबूती से नहीं जमा पा रही हैं, या फिर और कोई बात किताबों से ज्यादा अपना प्रभाव लोगों पर जमाने में सफल हो रही है?

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में जन्म पर आधारित होते हुए भी जाति अपने आप में कोई ठहरा हुआ शब्द नहीं है। इसकी गतिशीलता अलग-अलग रूप में नजर आती है। जो जातियां पारंपरिक रूप में जाति संरचना में ऊपर समझी जाती हैं या समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास की अवधारणा के मुताबिक ‘डोमिनेंट कास्ट’ (प्रभुत्वशाली जाति) की श्रेणी में आती हैं, वे समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए नए-नए तरीके अपना रही हैं। दो नई चीजें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। पहली, इन जातियों ने अपनी-अपनी जाति के नायकों को इतिहास के पन्नों से निकलना शुरू कर दिया है और उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि को समारोह के साथ मनाने लगे हैं। इसकी वजह अपनी जाति की पहचान को और ज्यादा मजबूती देना है, ताकि जाति संरचना में निचले पायदान पर समझी जाने वाली जातियों में अगर किसी प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता बढ़ती है तो भी वे इस तरह के समारोह के बहाने अपनी जाति को और ज्यादा मजबूत पहचान दे सकेंगे। शायद यह हो भी रहा है कि पिछड़ी और दलित जातियों के बीच जिस तरह से जागरूकता आ रही है, उसी तरह से उच्च कही जाने वाली जातियों और ‘डोमिनेंट कास्ट’ के नए-नए प्रतीक सामने प्रकट हो रहे हैं।

इसका प्रमाण हिंदी प्रदेशों में आमतौर पर देखने को मिलता है। लगभग हर दिन किसी न किसी जाति विशेष से जुड़े ‘नायक’ की खबर हम सबको पढ़ने को मिल सकती है। खास बात यह रहती है कि उस जन्म तिथि या पुण्य तिथि को मनाने वालों की सूची में शायद ही किसी भिन्न जाति के लोग होते हैं। इन खबरों को पढ़ कर किसी भी इतिहास के ‘नायक’ की जाति का पता आसानी से चल जाता है। जातीय संगठन ज्यादा मुखर होकर सामने आने लगे हैं। अलग-अलग जाति सभा से जुड़े कार्यक्रम की खबरें आम हो चली हैं।

दूसरी बात यह है कि आजकल कई लोग अपने दोपहिया वाहन यानी मोटरसाइकिल आदि के आगे वाली नंबर प्लेट पर गाड़ी के नंबर की जगह अपनी जाति का नाम लिखवा रहे हैं। साथ ही पीछे वाली नंबर प्लेट पर भी बड़े अक्षर में जाति का नाम और उसके बाद गाड़ी का नंबर लिखा हुआ आसानी से दिख जाता है। शायद उनकी जाति का दर्शाया गया नाम गाड़ी की पहचान बताने के लिए काफी है! यह चलन गांव-कस्बों से लेकर दिल्ली जैसे महानगर की सड़कों पर दौड़ रही दोपहिया गाड़ियों के पीछे या आगे जातियों के नाम- ब्राह्मण, क्षत्रिय, जाट, गुर्जर, अहीर जैसे शब्द आसानी से लिखे हुए मिल जाते हैं। इतना ही नहीं, चारपहिया गाड़ी यानी कारों के पीछे वाले शीशे पर भी किसी जाति विशेष से जुड़े प्रतीक या जाति की पहचान बताने वाले उपनाम लिखे हुए रहते हैं। इसके अलावा, ‘महाकाल’, ‘महादेव’, ‘संकट मोचन’ जैसे शब्द भी काफी प्रचलित हैं। शरीर की अलग-अलग जगहों पर टैटू गुदवाना ‘आधुनिकता’ की पहचान समझा जाता है। लेकिन लोग अपनी-अपनी जाति के नाम भी हाथों पर गुदवाने लगे हैं।

इसका मतलब स्पष्ट है कि जाति आधारित पहचान और ‘आधुनिकता’ साथ-साथ चल रही हैं। मैं अक्सर सोचता हूं कि आधुनिकता के बाने में लिपटे लोगों द्वारा इस तरह सार्वजनिक रूप से जातियों के नाम बेहिचक प्रदर्शित करना क्या अपने सामाजिक वर्चस्व को स्थापित करने की प्रक्रिया है? समाज में जिन जातियों को अति निम्न दर्जा दिया गया और जो उनके लिए एक बड़ी त्रासदी भी है, उनके लोग जब यह सब देखते होंगे तो क्या सोचते होंगे? जाति हमारे अंदर बड़ी जटिलता पूर्वक घुली हुई है और एक बड़ी पहचान के रूप में हमेशा सबसे आगे खड़ी रहती है। वतर्मान समय में जाति आधारित व्यवस्था और जातिगत पहचान समाज में नए रूप में ज्यादा मजबूत हो रही है। फिर आने वाली पीढ़ी से हम जातिगत संरचना के बारे में बात करने से क्यों मुंह मोड़ते हैं? अगर जाति व्यवस्था से समाज में पड़ रहे प्रभाव को कम या खत्म करना है तो आने वाली पीढ़ी से इस मुद्दे पर खुले दिमाग से बात करनी होगा, न कि अपना मुंह छिपाना होगा।