हेमंत कुमार पारिक
सन 1974 में एक गाना बच्चों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ था- ‘एक चिड़िया अनेक चिड़िया..!’ बच्चे क्या, बुजुर्गों को भी मैंने यह गाना गुनगुनाते सुना था। यह गीत दूरदर्शन पर भी अक्सर प्रसारित होता था। व्यापक अर्थ वाला यह गाना बच्चों की जुबान पर चढ़ गया था। इसके बहुत पहले एक फिल्मी गाना था जो चिड़िया और हमारे आसपास रहने वाले जीव-जंतुओं को लेकर लिखा गया था। वह गाना था- ‘चुन-चुन करती आई चिड़िया…।’ चिड़िया के साथ अपने आसपास रहने वाले अन्य पशु-पक्षियों को भी इसमें शामिल किया गया था। लेकिन गाने की शुरुआत चिड़िया से हुई थी। चिड़िया यानी गौरैया!
चिड़िया को लेकर पहले भी जातक कथाओं में और घर में तीज-त्योहार पर कई किस्से-कहानी कहते और सुनते आ रहे हैं। दरअसल, चिड़िया ही वह पक्षी है जो आदमी के एकदम करीब है। छोटी-सी चिड़िया किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती, बल्कि कुत्ते-बिल्लियों की तरह इंसान के पास ही रहना चाहती है। काफी पहले मेरे घर के पंखे पर उसका घोंसला हुआ करता था। पंखा अमूमन गरमी में ही चलता था, इसलिए उसने अपना स्थायी निवास उसे ही बना लिया था। वह उसी में अंडे देती थी। कुछ दिनों बाद नवागतों की चीं-चीं की आवाज सुनाई देती थी। कभी-कभी कुछ अंडे लुढ़क कर नीचे गिर कर फूट भी जाते। वह पंखे पर बैठी दुखी होकर उन्हें देखती रहती थी। गरमी के दिनों में उस पंखे की जरूरत पड़ती तो मां कहती कि ‘रहने दे, चिड़िया के बच्चे होंगे। कहीं चिड़िया पंखे के ब्लेड से टकरा न जाए।’ इसी कारण ड्रार्इंग रूम में पंखा नहीं चलता था। अलग से एक टेबल पंखा खरीदा गया था। मुझे याद है कि चिड़िया के बच्चों की चीं-चीं से पूरा घर जैसे बोलने लगता था। चिड़िया के छोटे-छोटे बच्चों को छूने का मन करता तो मां फटकार लगाती- ‘छूना नहीं! बच्चे को चिड़िया मार डालेगी।’ इसका कारण तो मैं कभी नहीं जान पाया, लेकिन फुदकते बच्चों को एकटक देखता रहता था।
मां की आदत थी चिड़ियों को दाना डालने की। गरमी में उनके लिए मिट्टी के बर्तन में पानी भर कर पेड़ से लटका देती थी। वह पानी चिड़िया और अन्य दूसरे पक्षियों की प्यास बुझाता था। सरकारी क्वार्टर था। वहां से निकल कर निजी मकान में आए तो सबसे पहले मां ने ही कहा था कि कहां घर लिया है… यहां तो एक भी चिड़िया दिखाई नहीं पड़ रही है। हमारा घर शहर से दूर था। हालांकि गांव का माहौल था। वहां चिड़िया मिलने की सौ फीसदी गारंटी थी, पर अफसोस वहां एक भी चिड़िया नहीं दिख पा रही थी। शायद वजह यह थी कि उस इलाके में कई औद्योगिक इकाइयां लग गई थीं। एकाध बार दिखाई पड़ी भी तो धुएं और कार्बन से काली हुई चिड़िया को मैं पहचान ही नहीं पाया। मां का दिल रखने के लिए मैंने घर में कॉलबेल लगवाई। एक छोटा-सा लकड़ी का घर और उसमें खिलौना चिड़िया थी जो बटन दबाते ही चीं-चीं बोलने लगती थी। फिर भी मां इस उम्मीद से चावल के दाने डालती रहती कि कोई चिड़िया होगी तो आ जाएगी जरूर। मगर उनका वह प्रयास अकारथ जाता था। एक-दो जंगली कबूतर दाना चुगते दिखते। चिड़िया कहीं नजर नहीं आती। वजह साफ है- प्रदूषण! चिड़िया जैसी और कई प्रजातियों का अचानक विलुप्त हो जाना खतरे की घंटी बजा रहा है। किसी वैज्ञानिक का दावा है कि जिस दिन मधुमक्खी का अस्तित्व खत्म होगा, वह जीती जागती दुनिया का आखिरी दिन होगा। वजह साफ है। इस भागमभाग जिंदगी में हम आधुनिकीकरण की दौड़ में बेतहाशा दौड़े चले जा रहे हैं। बिना यह समझे कि पीछे बहुत कुछ खोता जा रहा है।
पक्षियों के लिए जीवन-संघर्ष विकट होता जा रहा है। आज केवल एक चिड़िया ही नहीं है, बल्कि और सभी पक्षी हैं। मसलन, कबूतर, कौवा, बुलबुल, कोयल। भौंरे और तितलियां भी आजकल नजर नहीं आतीं। वरना कभी कौवा और कोयल की तुलना में हम संस्कृत श्लोक पढ़ा करते थे- ‘काक: कृष्ण: पिक: कृष्णा, को भेदो पिक काकयो..।’ उजड़ती अमराइयों, बगीचों और फैलते कंक्रीट के जंगलों ने इनका जीना दूभर कर दिया है। एक आकलन के मुताबिक विश्व में करीब साढ़े छह सौ पक्षी प्रजातियां संकट के दौर से गुजर रही हैं। कीटनाशक दवाओं और रासायनिक खर-पतवार नाशकों के छिड़काव ने पक्षियों को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
शहरी परिवेश में पहले जैसी परिस्थितियां नहीं हैं, जैसे आंगन, रोशनदान, पेड़ आदि। सुरक्षित स्थान कम होने से चिड़िया, कबूतरों और अन्य प्रजातियों को घोंसले बनाने में कठिनाई होती है। इसके अलावा, संचार साधनों के ऐसे जाल फैले हैं कि पक्षी क्या, इंसान की जान भी सुरक्षित नहीं है। अभी भी हमारे हाथ में बहुत कुछ है। सुबह- सुबह हम चहकती चिड़िया को देखना चाहते हैं तो अपने आसपास के वातावरण को शुद्ध करना होगा, ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम जीती-जागती चीं-चीं करती चिड़िया दिखा सकें। वरना किताबों में चिड़िया के चित्र को दिखाते हुए कहेंगे- ‘इसे गौरैया कहते हैं।’