आमतौर पर बिहार की हर वह घटना सुर्खियों में होती है, जिसमें उस राज्य को लेकर नकारात्मकता का भाव पैदा हो। लेकिन हाल में बारहवीं की परीक्षा में शीर्ष पर रहने वाले विद्यार्थियों को लेकर देश भर में चर्चा हुई। जाहिर है, पहले के मुताबिक ही इसमें वे तमाम कोने ढूंढ़ डाले गए जिससे शीर्ष पर रहे एक-दो विद्यार्थियों से राज्य की छवि को परिभाषित करने की कोशिश की गई। लेकिन इस बात पर बेहद हैरानी हुई कि वहां के एक स्कूल की लड़की का फोटो लगा कर, उसकी ‘प्रतिभा और परिणाम’ का मजाक बनाया जा रहा था और समाज से लेकर सरकार तक को इसमें कुछ भी गलत नहीं लग रहा था। नाबालिग बच्चों के मामले में कानूनी तकाजों की तो दूर, समाज या सरकार ने उसके नतीजे में अपनी किसी भूमिका पर शायद गौर भी नहीं किया। ठीक है कि उस लड़की ने नकल के सहारे ही परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया और उसे अपने विषयों का अपेक्षित ज्ञान नहीं है तो भी मीडिया, राज्य सरकार और समाज की भीड़ को राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छीछालेदर करने का क्या हक है?

मीडिया में उस लड़की की तस्वीरें इस तरह चलाई जा रही थीं, जैसे वह कोई बड़ा अपराधी चेहरा हो। अफसोस इसका है कि उसे खुद भी शायद पता नहीं हो कि उसे जो सदमा पहुंचा होगा, उसका पैमाना क्या है। इससे सामाजिक रूप से हुई मानहानि के आघात से क्या वह इतनी आसानी से उबर पाएगी? जो लोग नकल के इस खास मुद्दे पर आज इतने सक्रिय दिख रहे थे, क्या उन्हें स्कूल की परीक्षाओं के दौरान कोई सुध थी? इस खबर को नमक-मिर्च लगा कर हवा देने वाले लोगों को क्या बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक के स्कूलों में शिक्षकों की कमी, विद्यालयों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव और बोर्ड परीक्षाओं में नकल के संगठित तंत्र के बारे में कोई जानकारी नहीं है? ऐसे तमाम इलाके हैं जहां महज एक या दो शिक्षक पांचवीं या आठवीं तक के स्कूल को भी संभाल रहे हैं। कितने हाई स्कूल या इंटरमीडिएट स्कूल हैं, जिनके पास विज्ञान की प्रयोगशाला है और उनमें नियमित प्रयोग की कक्षाएं चलती हैं? ऐसी हालत में भी किसी परीक्षा में हासिल अंक ही अगर योग्यता का पैमाना बन जाए तो सामाजिक स्तर पर कैसी स्थितियां बनेंगी?

देश भर में राज्य की छवि पर लगे दाग को धोने की गरज में बिहार सरकार ने आनन-फानन में दुबारा परीक्षा करवाई और मान लिया कि यही शिक्षा व्यवस्था की कुल खामियों का इलाज है। जबकि कई साल पहले खुद बिहार सरकार ने ‘कॉमन स्कूल सिस्टम’ के लिए एक आयोग बनाया था। सबको समान शिक्षा के आधारभूत सिद्धांत पर बनाए गए आयोग के सदस्यों प्रो मुचकुंद दुबे और प्रो अनिल सद्गोपाल ने कड़ी मेहनत से रिपोर्ट बनाई थी। लेकिन बिहार सरकार ने उस रिपोर्ट और कॉमन स्कूल सिस्टम के विचार को किनारे कर दिया। देश के स्तर पर शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 को जमीन पर उतारने में पांच साल के बाद भी कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई है। शिक्षकों की कमी एक मुख्य मुद्दा है। शिक्षा की गुणवत्ता का सवाल सबसे अहम है और सालों से लगातार बना हुआ है। ऐसे में शीर्ष स्थान के लायक इतने ज्यादा नंबर लाने की प्रक्रिया क्या होगी, क्या इसका अंदाजा लगाना इतना मुश्किल है?

आज जब शिक्षा व्यवस्था की परीक्षा उन्मुखी और सौ प्रतिशत अंकों की प्रवृत्ति पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं तो ऐसे में पूरी शिक्षा व्यवस्था की नाकामी के बजाय एक छात्रा को अपराधी की तरह पेश किया गया। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमने सफलता के ऐसे सामाजिक मानदंड बनाने शुरू कर दिए हैं जो हर साल हजारों छात्रों को अवसाद और खुदकुशी की ओर धकेल रहे हैं। बिहार की उस लड़की के बहाने जो सामाजिक छवि बनाई जा रही है, अगर इसके नतीजे घातक हुए तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? जो विद्यार्थी स्कूल में अच्छा नहीं करेगा, क्या वह जीवन में नाकाम है? अगर ऐसा है तो सबसे पहले राजनीति, पत्रकारिता, सामाजिक सेवा के लोगों की शिक्षा का रिकॉर्ड देखा जाना चाहिए।

दरअसल, शिक्षा व्यवस्था आमूल-चूल परिवर्तन की मांग कर रही है। बिहार में शिक्षकों की भर्ती और उनके शैक्षिक रिकार्ड्स का मामला कुछ समय पहले उठा था। उसका क्या हुआ, किसी को कुछ नहीं पता। ऐसा लगता है कि वह कहावत शायद ऐसे ही मौके के लिए बनी थी- ‘मुर्गे की जान गई, नवाबों का खेल!’ शिक्षा व्यवस्था की खामियों की सूची में ‘टॉपर्स घोटाले’ में पकड़े गए लड़के-लड़की बहुत निचले पायदान पर हैं। जिम्मेदारी ऊपर से तय होनी चाहिए। जांच समिति के निष्कर्ष क्या आएंगे, यह पता नहीं। लेकिन देखना है कि क्या बिहार इस घटना के बाद शिक्षकों की नियुक्ति और शैक्षिक गुणवत्ता का बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करेगा!