जगमोहन सिंह राजपूत
प्रोफेसर मुरारीलाल ने उनसे पूछा, ‘क्या नाम है आपका?’ वे बोले, ‘जनाब हम तो सब सब्जी वाले ही हैं, उसी नाम से जाने जाते हैं वैसे हमारा नाम वहीद रखा गया था।’ प्रोफेसर साहब बोले- यानी आपका नाम है जनाब मोहम्मद वहीद खान। उन्होंने सिर उठाया, प्रोफेसर की आंखों में देखने की कोशिश की, चेहरे पर चमक आ गई थी। आश्चर्य भी था, कुछ यह भाव भी कि क्या उनके साथ मजाक तो नहीं किया जा रहा है। कुछ ठहर कर बोले, साहब नाम तो मेरा यही था, मगर मैंने शायद पूरा नाम पहली बार ही सुना होगा। आपने कैसे जाना? क्या आप स्कूल मास्टर हैं? यहां के तो नहीं लगते, कहां से आए हैं?
मैंने कहा, आप ठीक कहते हैं, हम यहां पहली बार आए हैं और दोनों ‘मास्टरी’ ही करते हैं, मगर आपने इतना सही अंदाजा कैसे लगा लिया? उत्तर था: इतनी देर से आप लोग जितनी बातें कर रहे हैं और जो इज्जत मुझे दे रहे हैं वे साफ बतलाती हैं कि आप लोग हद्दोई के तो कतई नहीं हैं। वैसे साहब, आपने पूरा नाम लेकर मेरी तबियत खुश कर दी। हम देख रहे थे कि उनके चेहरे पर चमक आ गई है। शाम के साढ़े आठ बजे हैं, सब्जी मंडी में ग्राहक लगभग नहीं हैं। दुकानदार सामान समेट रहे हैं, चारों ओर कचरा फैला हुआ है। इस शहर में ‘स्वच्छ भारत’ की भनक कहीं पहुंची है, ऐसा नहीं लगता। मैं प्रोफेसर साहब को गांव ले गया था। लौटते समय हम सब्जी मंडी गए और वहीद मियां की दुकान पर पहुंच गए। सबसे पहले हमारी निगाह गोभी के फूल पर गई। एकदम ताजे, साफ-सुथरे, हर फूल करीब दो किलो का।
‘कैसे दिए’ पूछने पर वहीद बोले- दस रुपए में एक। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न था। दिल्ली में इसे तौला जाएगा, कीमत सत्तर-अस्सी रुपए से कम न होगी- और अगर मॉल में गए तो सौ रुपए भी हो सकती है। लगा, चलो आठ-दस ले चलते हैं। दिल्ली में मित्रों को देंगे। लेकिन क्या इतना सस्ता लेना उचित होगा? बिचौलिए कितना कमाते हैं? आलू का दाम पूछा- पंद्रह रुपए में ढाई किलो। गोभी और आलू आज सुबह ही खेत से निकाले गए थे। प्रोफेसर साहब ने कहा कि दस गोभी वे लेंगे और मित्रों को देंगे और समझाएंगे कि भारत को बड़ा बाजार बनाने को उत्सुक दुनिया के बड़े देशों के इरादों पर बहस, गोष्ठियां और सेमिनार करने वाले कभी हरदोई और दिल्ली की सब्जी मंडियों के इस ‘विकराल’ अंतर को कम करने का प्रयास क्यों नहीं करते?
प्रोफेसर मुरारीलाल की गोभियां जब गाड़ी तक पहुंच गर्इं तो उन्होंने तीन सौ रुपए देते हुए कहा: हम आपको ये पैसे इसलिए दे रहे हैं कि दिल्ली में ये सब्जियां हमें छह-सात सौ रुपए से कम में नहीं मिलेंगी! अब हमने जो सुना वह यह था: साहब हम यहां तीस साल से बैठते हैं, तब दस साल के थे जब अपने वालिद साहब के साथ सीखने लगे थे। कभी किसी से ज्यादा पैसा नहीं लिया, ईमानदारी की रोटी खाई है, ऊपर वाला भी यही चाहता है, वालिद साहब भी यही फरमाते थे। हमारा गुजरा आसानी से हो जाता है। आपके ये दो सौ इफरात के रुपए मैं कैसे रख सकता हूं? हमारा सही दाम तो दस रुपए का एक फूल ही है, दिल्ली में कितने का बिकता है उससे हमें क्या?
हरदोई से दिल्ली की दूरी लगभग चार सौ किलोमीटर है। ऐसा तो नहीं कि हरदोई के जनप्रतिनिधि या वहां पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी बाजार भाव के अंतर या अनुचित मुनाफा कमाने वालों के बारे में जानते नहीं हैं। समस्या संवेदना के अभाव की है, सामान्यजन से लगातार घटते जुड़ाव की है। वहीद मियां को कोई शिकायत नहीं है। वे मानते हैं कि जब तक अल्लाह के बताए रास्ते पर चल रहे हैं, कोई फिक्र की बात नहीं है।
उनके तीन बच्चे हैं तीनों स्कूल जाते हैं, दो बेटे एक बेटी। बेटी छह वर्ष की है। बेटी के बारे में सुनते ही प्रोफेसर साहब, जो अभी वापस किए दो सौ रुपए हाथ में पकड़े हुए थे, बोले- अच्छा वहीद भाई हम लोग उम्र में आपसे बड़े हैं, आपकी बेटी के लिए कुछ दे सकते हैं? वे बोले- साहब आप लोग उम्र में ही बड़े नहीं, बड़े आदमी भी लगते हैं। बेटी के लिए एक बड़ा काम कर दीजिए। वह जिस स्कूल में जाती है वहां मास्टर साहब कभी-कभी ही आते हैं, अगर रोज आने लगें तो उसका जीवन संवर जाएगा। हमारे पास जवाब तो यही था कि वहीद भाई, यह तो हम साठ साल में नहीं कर पाए, न कोई आगे इसके आसार हैं कि मास्टर साहब रोज स्कूल आएंगे। हम यह कह भी नहीं सकते थे। ‘हमें अब चलना चाहिए’ कह कर मुंह छिपाते हुए वहां से चल दिए। शर्मिंदा हैं हम वहीद भाई।
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