विष्णु नागर
मेरे घर में शुरू से ‘चकमक’ पत्रिका आती रही है। मैंने अपने दोनों बच्चों को इसे पढ़ाया है और खुद भी पढ़ता रहा हूं। अब बच्चे बड़े हो गए हैं, मगर मैं बड़ा नहीं हुआ हूं। मैं मानता हूं कि आदमी को कभी इतना बड़ा भी नहीं होना चाहिए कि ऐसी पत्रिका हाथ लगे तो पढ़ न सके।
हालांकि मैं इसे इधर इसलिए पढ़ रहा हूं कि गाहे-बगाहे कुछ लिख देने के कारण यह पत्रिका मेरे पास भी आ जाती है। मैं नहीं भी लिखता हूं तो मुझ पर अपना अधिकार समझ कर संपादकगण मेरी किताब ‘ईश्वर की कहानियां’ में से कुछ छाप लेते हैं। यही एक बाल पत्रिका है, जिसने लगातार हिंदी कवियों-लेखकों से लिखवाया है बच्चों के लिए। यह कभी उन बाल साहित्यकारों के भरोसे नहीं रही है, जिनकी अपनी एक प्रजाति है और जो हर बाल पत्रिका को लाभान्वित करती रही है, लेकिन इस पत्रिका से लगभग अनुपस्थित है।
खैर, ताजा अंक में छपी किस रचना की तारीफ करूं और किसे छोड़ दूं, समझ नहीं पा रहा। कहूं कि बड़ी-बड़ी पत्रिकाएं पढ़ कर भी जितना आनंद नहीं आता या बौद्धिक-संवेदनात्मक ऊर्जा मिलती रही है, उससे ज्यादा इससे मिली। ‘चकमक’ के फिलहाल दो संपादक हैं- सुशील शुक्ल और शशि सबलोक। ‘एकलव्य’ संस्था को इसके लिए धन्यवाद, जिसने लगभग तीन दशकों से इसे लगातार प्रकाशित किया है। ‘एकलव्य’ ने जमीनी स्तर पर और कल्पनाशीलता के साथ कुछ और काम भी किए हैं, खासकर बच्चों के लिए। अ
रुण कमल अपनी कविताओं के लिए तो बहुत जाने जाते हैं, मगर ‘तद्भव’ के पिछले कुछ अंकों में जिन्होंने उनका आत्मकथात्मक-सा गद्य न पढ़ा हो, उन्हें पढ़ना चाहिए, जो शायद जल्दी ही पु्स्तकाकार में आए। ‘चकमक’ के इस अंक में ‘हवाएं’ शीर्षक से उनकी रचना को कहानी भी माना जा सकता है, लेकिन वह उत्कृष्ट गद्य का एक नमूना है। प्रियंवद ने ‘सिकंदर के दस सवाल’ शीर्षक से सिकंदर के पहले प्रामाणिक जीवनीकार प्लूटार्क के हवाले से जो लिखा है, वह कम से कम इतिहास के मामले में लगभग शून्य किसी आदमी के लिए दिलचस्प और ज्ञानवर्धक है। दिमाग की खिड़कियां बंद करते चले जाने के इस जमाने में इसे पढ़ना जरूरी है। सिकंदर के सवाल, भारतीय विद्वानों के शानदार जवाब और सिकंदर का औदार्य है! स्वयंप्रकाशजी पिछले कुछ अरसे से ‘एक था हाजी, एक था नाजी’ शीर्षक से कुछ हास्य कथाएं लिखते रहे हैं, जिन्हें पढ़ कर सचमुच हंसी आए बिना नहीं रहती।
रविकुमार बांसफोर की ‘मेरी डायरी के कुछ पन्ने’ में दलित होने के कारण बचपन से उनके साथ किए जा रहे भेदभाव की कथा शायद तमाम दिलों में जगह बना सके। वे पढ़े-लिखे होने के बावजूद आज भी सफाईकर्मी का काम इसलिए कर रहे हैं कि वे सफाईकर्मी परिवार से आते हैं। बच्चों के नहीं, बल्कि हमारे दिल ही पत्थर के होते हैं जो आसानी से पिघलते नहीं। मगर बचपन में ही ऐसे दर्द का अहसास करा दिया जाए, तो ये कितनी बड़ी बात है। मुझे याद नहीं आता कि किस बाल पत्रिका ने ऐसे विषयों को पहले या अब उठाया है। नरेश सक्सेना ने आलोक वर्मा की क्या सुंदर कविता चुनी और उसकी संक्षेप में व्याख्या की है!
‘रफ्तार मिस्त्री का जादू’ हो या गुलजार की कविता ‘जमीं को जादू आता है’ अच्छी हैं। खुद संपादक सुशील शुक्ल ने एक बहुरूपिए से जो मुलाकात पेश की है, उसमें रोजी-रोटी के लिए जूझते एक आदमी की दास्तान जिस मार्मिकता से सामने आती है, वह लगभग कविता की तरह है। इसमें बच्चों की लिखी लगभग असंशोधित रचनाएं और चित्र हर अंक में छपते हैं। उन्हें मैं कभी छोड़ नहीं पाता।
यह शानदार पत्रिका पिछले तीस साल से मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से निकलती है। मगर इससे जब दिग्विजय सिंह सरकार को समस्या होने लगी थी तो मौजूदा सरकार को क्यों नहीं होती, जिसने संघ परिवार की बाल पत्रिका ‘देवपुत्र’ का आजीवन चंदा जमा किया है। जहां ‘देवपुत्र’ होगा, वहां इस पत्रिका की पूछ हो भी क्यों! हालांकि इसके जरिए वामपंथ पढ़ाया जा रहा हो, ऐसा नहीं है। छत्तीसगढ़ में जरूर यह कुछ जाती है, मगर दिलचस्प यह कि राज्यों की सेक्युलर सरकारों को भी इसकी परवाह नहीं है।
बताया जाता है कि बिहार सरकार को इसे प्रकाशित करने वाली संस्था ‘एकलव्य’ ने यह प्रस्ताव भी किया था कि हम आपको हर अंक की ‘सॉफ्ट कॉपी’ भेज देंगे, आप खुद छाप कर स्कूलों में इसे बांट दीजिए और संस्था को इसके बदले कुछ मत दीजिए। मगर यह भी मंजूर नहीं हुआ। खैर, पत्रिका फिर भी निकल रही है। दुनिया को सुंदर बनाने के इन छोटे-छोटे प्रयासों का महत्त्व वे सरकारें क्या जान पाएंगीं, जिनके एजेंडे में यह सिरे से गायब है। वे क्या जानें कि जाने-अनजाने वे बच्चों के प्रति कितना बड़ा अपराध कर रही हैं!
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