जब तक बुरे दिन चले, करुण स्वर में मिमियाती हुई वह अपनी जान बख्श देने की फरियाद करती रही। पर तब किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। सबको पता था कि उसकी नियति वही है जो बगिया में खिलती कलियों की होती है। कलियों के हाल पर तरस खाकर कवि ने कहा था- ‘माली आवत देख कर कलियां करें पुकार, फूली फूली चुन लर्इं काल्ह हमारी बार।’ पर नियति वही होने के बावजूद इस बेचारी के साथ किसी हमदर्दी का उल्लेख नहीं मिलता। उलटे, लोग उसे जीवन की क्षणभंगुरता की निष्ठुरता से याद दिलाते रहते हैं, यह कह कर कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी!

लोग कुछ भी कहें, पर एक हाथ लेना, दूसरे हाथ देना उसकी जीवनपद्धति नहीं। निष्काम कर्म की मिसाल बनी वह अनासक्त भाव से इंसान को खुश करने में जुटी रहती है। जितना दूध दे सकती है, देने में कोताही नहीं करती। अधिक सामर्थ्य वाली उसकी बड़ी बहन को मातृवत पूजा गया तो इस निरीह को छोटी मां का स्थान देने की किसी ने न सोची। पर उसे कोई शिकायत नहीं। भोजन में गुड़ खली आदि व्यंजन न मिलें कोई चिंता नहीं। हरे-भरे चरागाहों की कोई कामना नहीं। वह तो कंटीली झाड़ियों में भी भोजन ढूंढ़ निकालती है। जिराफ जैसी लंबी गर्दन विधाता से मिली होती तो लंबे तनों पर घुटने टिका कर सबसे ऊंची फुनगियों की मुलायम पत्तियों का आस्वादन करती। कद्दावर नहीं है, पर हौसला उसका बुलंद रहता है। कभी गांव के उपेक्षित कोने में बने मिट्टी के घरों की खपरैल के ऊपर चढ़ी नजर आती है तो कभी किसी टूटती गिरती दीवार के ऊपर चढ़ कर इतना खुश दिखती है, जैसे एवरेस्ट की चोटी पर विजय पा ली हो!

ऊंचाइयां चढ़ जाने के बाद नीचे की तरफ देख कर घबराना उसकी फितरत में नहीं। तभी पहाड़ों की खड़ी चढ़ाइयों और गहरी ढलानों पर वह बेफिक्री से घूमती है। पैर फिसल जाने की चिंता नहीं! चिंता अगर उसके स्वभाव में होती तो ‘काल्ह हमारी बार’ वाली चिंता उसे जीते जी खा जाती। ‘मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त’ वाली बात उसके संदर्भ में सही है। खुद तो वह चिंताग्रस्त नहीं रहती, पर जमाना परेशान रहता है कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी।

महात्मा गांधी शायद आखिरी महात्मा थे, जिन्हें उसके दूध में कोई अच्छाई नजर आती थी। आज के महात्माओं को जितनी मलाई रबड़ी पसंद है, उतनी इस निरीह के दूध में कहां। गाय-भैंस का दूध कितना भी पानी मिला हुआ हो, लोग चुपचाप पी लेंगे। पर उतना ही पतला उसका दूध मिले तो उसकी शिकायत करेंगे। पगुराना उसे भी आता है, पर मजाल है कि कोई भूले से भी उसके सामने बैठ कर बीन बजाए! बजाते तो वह भी अपने पगुराने का आरंगेत्रम (मंच पर पहला प्रदर्शन) करने का सुख भोग लेती। चाहने वालों की भीड़ लगती भी है तो जीवन दांव पर लगा देने के बाद। फिर क्या भैंसा, क्या सूअर- सबका मूल्य इससे कम आंका जाता है। कुक्कुटजी भले सुबह-सुबह गला फाड़ कर चिल्ला लें, पर मरणोपरांत बाजार इस गरीब का मूल्य उनके मूल्य के दुगुने से भी अधिक आंकता है।

फिर भी चमत्कार होना था तो हुआ। बेचारी बकरी ने कब सोचा था कि उसके हलके, पतले, हीक वाले दूध की कीमत अचानक डेढ़ हजार रुपए प्रति लीटर पहुंच जाएगी। जो बेचारी खपरैल पर चढ़ कर समझती है कि आकाश छू लिया, उसके दूध का वितरण ऑनलाइन करने में आकाश की तरंगों से सहयोग लेना पड़ रहा है। यह चमत्कार किया डेंगू के मच्छरों ने। कहीं से पता चला कि बकरी का दूध पीने से रक्त में प्लेटलेट बढ़ जाते हैं और धूम मच गई। अब बकरियों के मालिक बकरी की अम्मा की खैर की स्थायी गारंटी देने को तैयार हैं। डेंगू कोई चार दिन की चांदनी तो है नहीं! फिर बकरी का दूध डेढ़ हजार से बढ़ कर पंद्रह हजार रुपए प्रति लीटर हो जाएगा। भाव इतना चढ़े तो कौन मासूम और निरीह बना रह सकता है। तब तो वह भी किसी कंटीली झाड़ी पर घुटने टिका कर प्रेस कॉन्फ्रेंसी अदा से खड़ी होकर अपने नन्हे-नन्हे दांत निकाल कर मुस्कराएगी, जैसे कह रही हो- ‘जो सबसे बाद में हंसता है, वही आखिर तक हंसता रह सकता है।’

(अरुणेंद्र नाथ वर्मा)

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