नीरा जलक्षत्रि
कुछ समय पहले बरसों पुरानी मित्र का फोन आया। उसने बताया कि वह भारत लौट रही है। उसके पति को यहां एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छा प्रस्ताव मिला था। उसकी आवाज में खुशी और देश वापस आने की बेसब्री थी। मैं भी बहुत खुश हुई कि कोई आठ बरस बाद अब उससे मिलना होगा। कॉलेज के दिनों में अक्सर कक्षाएं खत्म होने के बाद हम कई दोस्त मिलते, चाय के साथ शेरो-शायरी की महफिल जमती थी। हमारे समूह में कई दोस्त ऐसे थे जो विज्ञान विषय से पढ़ने के बावजूद साहित्य में खासी रुचि रखते थे। विदेश चली गई दोस्त उनमें से एक थी। हम होली और ईद बराबर उत्साह से मनाते थे। उसे होली की गुझिया और मुझे सेवइयां बहुत पसंद थीं।
खैर, उसकी वापसी की खबर हम सब दोस्तों को मिल गई थी। आने के एक हफ्ते बाद उसका फोन आया कि वह दिल्ली-एनसीआर में अपने एक परिचित के यहां रुकी हुई है और किराए पर घर खोज रही है। मैंने कहा कि मैं भी खोज कर बताती हूं। मैंने अपने आस-पड़ोस में पूछा, हर जगह पूछने पर यह बताना पड़ता था कि घर एक मुसलिम परिवार को चाहिए। इसके बाद कोई न कोई कारण बता कर मना कर दिया जाता था। मैं आहत थी एक पढ़े-लिखे अच्छे परिवार के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कोई जगह नहीं थी। कुछ दिनों बाद उसका फोन आया। मैं शर्मिंदा और निराश थी। घर नहीं मिलने का कारण बताने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। हालांकि वह सच जानती थी। उसने बेहद भरे गले से बताया कि अपने देश में अजनबी समझे जाने का अहसास बेहद तकलीफदेह है। मैं अपराधबोध से भर उठी। बहरहाल, एक महीने बाद उसे ज्यादा पैसे खर्च करने के बाद एक घर मिल गया। अब नए अपार्टमेंट में मेरी इस मिलनसार दोस्त के कई दोस्त बन गए हैं।
इसके बावजूद एक बात लगातार दिलो-दिमाग पर छाई हुई है कि देश में मुसलमानों के खिलाफ लगातार जो माहौल बनाने की कवायद पिछले कई सालों से चल रही है, वह अब चरम पर क्यों है। आजकल नाम से ही इंसान को तोलने की रवायत चल पड़ी है और मजहब या जाति से लोगों के किरदार तय होने लगे हैं। अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच खाई को लगातार बढ़ाने का काम तेज है। सही है कि मानवता-विरोधी गतिविधियों में आपराधिक स्वभाव वाले लोग लिप्त होते हैं, लेकिन वे किसकी योजना के हिस्से होते हैं! ऐसा क्यों है कि आज के माहौल में एक मुसलमान पहचान वाले व्यक्ति को कदम-कदम पर अपनी देशभक्ति का सबूत हर जगह देना पड़ता है। जबकि यह समस्या दूसरों और खासतौर पर किसी हिंदू पहचान वाले व्यक्ति के साथ नहीं आती है, भले ही वे देश या समाज-विरोधी गतिविधियों में सिर से पांव तक क्यों न डूबे हों! मुझे अपनी दोस्त की वह बात बार-बार जेहन में गूंजती है कि यार, लगता ही नहीं कि हम अपने देश लौटे हैं! …बाहर भी गैर थे और यहां आकर लगता है कि यहां भी हमारा कोई नहीं! फिर हम कहां के हैं?
दरअसल, जिन लोगों को लगता है कि यह देश उनका है और बाकी सब बाहर से आए हैं, वे इस तथ्य की ओर से आंखें बंद रखना चाहते हैं कि उन्हें भी बाहर से आया हुआ माना जाता है। अब यह मुद्दा बहस का विषय बन चुका है कि खुद को आर्यों की संतान कहने वाले लोगों ने भी अन्य बाहरी आक्रमणकारियों की तरह यहां के मूल निवासियों को या तो जंगलों में खदेड़ दिया या फिर उन्हें खत्म कर डाला। उन्हें अपने साहित्य में असभ्य, बर्बर, जंगली, असुर और राक्षस आदि नामों से पुकारा और आने वाली पीढ़ियों तक को उनका दुश्मन बना दिया। जबकि वही असभ्य, बर्बर, जंगली, असुर और राक्षस कही जाने वाली जातियां दरअसल यहां के आदि-निवासी थे।
दुनिया भर में भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति को दुर्लभ माना जाता है। यह मिश्रित संस्कृति किसी एक धर्म की जागीर नहीं है। इसे बनाने में उन असंख्य जातियों और धर्मों के लोगों का योगदान है, जिन्होंने यहां आकर इसकी विविधता में एक नया रंग भरा। सवाल है कि आज दूसरे धर्म को खारिज करने वाले लोग किस-किस चीज को खारिज करेंगे? क्या भारतीय साहित्य से ग़ालिब, फ़ैज़, मीर को, संगीत से अमीर खुसरो से लेकर बिस्मिलाह खान तक को, मुगलकालीन स्थापत्य कला को, सिक्के चलवाने वाले शेरशाह सूरी को, इरफान हबीब से असगर अली इंजीनियर तक किस-किस को खारिज किया जाएगा? इस देश की संस्कृति में आर्य, पारसी, यवन, शक, कुषाण, अरब, अफगान, तुर्क, मंगोल, मुगल, पुर्तगाली, अंगरेज आदि विभिन्न संस्कृतियों के लोगों का कुछ न कुछ योगदान रहा है। इसलिए इस मिश्रित संस्कृति के कितने किस्से को खारिज करके इसे शुद्ध किया जाएगा और जो बचा रह जाएगा, वह क्या और कितना स्वीकार्य होगा! घर-वापसी, धर्मांतरण या हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर जारी यह अभियान दरअसल भारतीय संस्कृति और समाज के विद्रूपीकरण का अभियान है।
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