केसी बब्बर
पिछले दिनों एक मित्र के साथ रेलगाड़ी से दिल्ली जाने का सुयोग बना। हालांकि हमारे शहर हांसी से दिल्ली के लिए सार्वजनिक बसों की सुविधा है। जिस डिब्बे में हम बैठे थे, उसमें किसी के डफली बजाने और धार्मिक बोलों के गीत गाने की आवाज आने लगी। अधेड़ उम्र का एक आदमी गाने में एक लड़के की संगति कर रहा था। वह शायद उसका पिता था। लड़के की उम्र लगभग तेरह वर्ष रही होगी। न चाहते हुए हम भी उन गीतों को सुन रहे थे। लेकिन उस किशोरवय लड़के की आवाज में प्राकृतिक कहें या लगातार अभ्यास में रहना, लय और ताल में स्वरों का उठान, उतार, जिसे शायद संगीत की भाषा में आरोह-अवरोह कहते हैं, सुनने के काबिल था। मैं सोच रहा था कि उस लड़के की आवाज में लय और ताल नियमित संगीत शिक्षा के बिना कितनी अच्छी और मोहक है।
जब वह मेरे पास आया तो मैंने उसे कुछ दिया तो नहीं, लेकिन आने वाले स्टेशन पर जहां गाड़ी लगभग पंद्रह मिनट रुकती है, वहां चाय पिलाने को कहा। स्टेशन आते ही मैंने चाय ली और मित्र के साथ उन दोनों को भी दी। इस बहाने मैंने उनसे उसका नाम वगैरह पूछा और उसके पिता को लड़के को स्कूल भेज कर पढ़ाने के बारे में कहा। उन्हें यह भी बताया कि स्कूलों में आप इसी तरह से पढ़ाई के साथ गाना-बजाना भी सीख सकते हैं। इसमें आगे बढ़ने के मौके भी बहुत होते हैं। इस पर उस बच्चे के पिता ने कहा कि अगर ये स्कूल जाएगा तो हमारा घर खर्च कैसे चलेगा, हम गाड़ियों में गा-बजा कर ही अपना खर्च चलाते हैं।
इसके बाद हमारी गाड़ी रवाना हुई और मैं सोचने लगा कि देश में ऐसे न जाने कितने बच्चे जानकारी और आर्थिक अभाव के शिकार और बिना समुचित देखभाल के समय से पहले मुरझा जाने को अभिशप्त होंगे। इनमें से कितने खिलाड़ी, गायक, चित्रकार और अन्य प्रतिभा लिए गुमनामी में खो जाते होंगे। हम अक्सर चौराहों पर छोटे-छोटे बच्चों को रस्सी पर चलने के करतब करते देखते ही हैं।
खैर, कुछ समय पहले चैत्र नवरात्र का त्योहार बीता है। हमारे शहर में इन दिनों मंदिरों में जाने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी हो जाती है। इन दिनों दोपहिया वाहनों से मंदिरों में जाने के लिए निकले युवकों के झुंड भी देखे जा सकते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि उन दिनों लड़कियां आमतौर पर घर से मंदिर नंगे पांव आती-जाती हैं। ऐसा कहा जाता है कि मन की मन्नत पूरी होती है। दिखने में पढ़े-लिखे, आधुनिक और सोच में एकदम अवैज्ञानिकता, अतार्किकता, बहस-विहीनता का रुझान मध्यम या निम्न-मध्यम वर्ग के बच्चों में ज्यादा पाया जाता है। ऐसी गतिविधियों में कम या ज्यादा पढ़े-लिखे, सभी तरह के लोग शामिल होते हैं। नवरात्र के अंतिम दिन घरों में महिलाएं सुबह खीर-पूरी, हलवा आदि तैयार कर पड़ोस से छोटे-बच्चों को इकट्ठा कर अपने व्रत का समापन करती हैं। मैं जिस आवासीय कॉलोनी में रहता हूं, वह एक आधुनिक रिहाइशी परिसर है। वहां की महिलाएं भी व्रत समापन पर ऐसा ही उपक्रम करती हैं। लेकिन उस कॉलोनी के अधिकतर लोग अपने बच्चों को पड़ोस में भेजने से टालते हैं। इस संकट का समाधान पास की एक कच्ची बस्ती के लोगों के बच्चों को बुला कर किया जाता है। आर्थिक रूप से निम्न वर्ग के लोग अपने बच्चों को भेज देते हैं। ऐसे बच्चों में उत्साह भी देखते बनता है कि आज न जाने क्यों खीर-हलवा आदि के साथ कुछ रुपए नकद भी हर साल मिलते हैं!
इस तरह की गतिविधियां हम अपने समाज में अक्सर देखते ही रहते हैं। यह विचारणीय तो है ही, कुछ प्रश्न भी खड़े करती है। देश के नीति-नियंता नेतागण, शासन, प्रशासन समाज को ऐसी विसंगतियों समेत कहां जाने का रास्ता दे रहे हैं! भारत में जो लोग खुद को सदी के नायकों में शुमार कराना चाहते हैं, वे अभावग्रस्त लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर कहां निकले जा रहे हैं! विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में देश को सिरमौर क्या नंगे पांव मंदिरों के चक्कर लगा कर बनाया जाएगा? दूसरी ओर, हमारे जनप्रतिनिधियों के रोजाना के बेलगाम बयान कभी-कभी शर्मिंदा करते हैं। समाज की जमीनी हकीकत और नेताओं या जनप्रतिनिधियों के दावों में जमीन-आसमान का फासला होता है और इससे निराशा भी पैदा होती है। सवाल है कि इन हालात से कौन लड़ेगा? नेतृत्व वर्ग पर से तो हमारा भरोसा अब छीजता जा रहा है।
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