जयपुर में पली-बढ़ी बीसियों हस्तकलाएं इस समय संकट के दौर से गुजर रही हैं। समुचित कच्चे माल के अभाव में और बिना राजकोष संरक्षण और प्रोत्साहन के ये कलाएं मिटने के कगार तक आ गई हैं। अगर कुछ काम इन दस्तकारों द्वारा किया भी जा रहा है तो केवल उनमें चंद धनाढ्य संपन्न परिवार जमे हुए हैं और आम दस्तकारों का जीवन उनमें बंधुआ बन कर रह गया है। लाभ का सारा भाग मालिक हड़प रहे हैं और दस्तकार केवल मजदूरी ही प्राप्त कर पा रहे हैं। उनके वेतन या मजदूरी में वर्षों तक बढ़ोतरी नहीं होती और वे विवशता में पूंजी के अभाव में अपना खुद का कारोबार चलाने में भी सक्षम नहीं होने से शोषण का शिकार हो रहे हैं। यह स्थिति बहुत ही दुखद है। जयपुर में मूर्तिकला, पीतल की कला, हाथी दांत की कला, ब्लू पाटरी कला, मीनाकारी की कला, लाख की कला, चंदन की कला, गलीचा उद्योग और अन्य अनेक पारंपरिक कलाएं हैं जो वर्षों से चली आ रही हैं और हजारों की संख्या में लोग इनसे जीवकोपार्जन करते आ रहे हैं।
वैज्ञानिक विकास ने जहां इन दस्तकारियों को बाजार में बिकने से रोका है, वहीं मशीनीकरण से बनी चीजों में सफाई और आकर्षण अधिक होने से ये हाथ की बनी चीजें ‘कम्पीटीशन’ में टिक नहीं पा रही हैं। फिर लघु उद्योग निगम जो प्रयास कर रहा है, वह पर्याप्त नहीं है। अगर नए उद्यम को निगम प्रशिक्षित कर बैंकों से ऋण सुलभ करवाएं तो इन कलाओं के बचने की आशा बंध सकती है। आज इन कलाओं और व्यवसायों में नए उद्यमियों का प्रवेश नहीं हो रहा है और जो वर्षों से इनमें लगे हुए थे, वे लोग बाजार के अभाव और अन्य तकनीकी और कार्यकर्ताओं के अभाव में इन्हें त्याग रहे हैं और इन पर संकट दिनोंदिन गहरा रहा है। यों आज भी इन कलाओं से राज्य सरकार लाखों रुपए कमा रही है और व्यवसायी मुनाफा भी पा रहे हैं, लेकिन यह लाभ चंद लोगों तक सिमटा हुआ है। इनमें नए लोग नहीं आ रहे हैं तो इसका मूल कारण चंद लोगों की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति है।
उन्हीं लोगों ने पूंजी का फैलाव करके सारे कला व्यवसाय को अपने में समेट लिया है। यही हाल कपड़े पर चित्रकारी करने वाले कलाकारों का है। पच्चीस-पचास रुपए देकर मालिक ‘मिनिएचर्स’ तैयार करवा लेता है और पांच-सात सौ से लेकर हजार रुपए तक के मूल्य में बेच रहे हैं, वे भी विवश हैं, अपना धंधा पूंजी के अभाव में करने में असमर्थ हैं। इसलिए जीविका के लिए वे लोग अपना शोषण होने देने पर मजबूर हैं।जयपुर की दस्तकारी की चीजें पूरे विश्व में प्रसिद्ध रही हैं। बाहर से प्रतिवर्ष आने वाले लाखों पर्यटक इनमें से उपयोगी और सजावटी चीजें स्मृति और उपहार के रूप में हमारे यहां से ले जाते हैं, लेकिन उनमें भी लाभ का ज्यादा प्रतिशत मालिक और बड़े एम्पोरियम के विक्रेता कमा रहे हैं। जिस कला को अपने हाथ से पूरे मनोयोगपूर्वक कारीगर बनाता है, वह रोटी को मोहताज है और सरमाएदारों की पांचों उंगलियां घी में है।
राज्य सरकार को इस दिशा में व्यापक जांच के बाद वस्तुस्थिति को जानना चाहिए और शोषण के शिकार कारीगरों को अपने स्तर पर व्यवसाय चलाने के लिए ऋण और प्रशिक्षण आदि की सुविधा प्रदान कर उन्हें आगे लाना चाहिए, ताकि उनका जीवन स्तर भी ऊंचा हो वह मनमानी से बच सके। अपना काम खुद चलाने वाले अनेक छोटे कारीगरों को बाजार का पता नहीं है। वे नहीं जानते कि वे उनके माल की समुचित कीमत कैसे मिल सकती है। इसलिए वे कम लाभ पर अपना उत्पादन बंधी-बंधाई जगह बेच रहे हैं और वह बिचौलिया उसी उत्पादन से केवल माल को इधर-उधर करने में खूब कमा रहा है। यह भी एक ऐसी विसंगति है, जिसे दूर करने की दिशा में पहल होनी चाहिए। पुराने कारीगरों की यही नियति है कि उनको जो मिल रहा है, उसमें संतोष है और वे दलालों के हाथों शोषित हो रहे हैं।
आज आवश्यकता है इन कला व्यवसायों को आगे बढ़ाने की इनमें वक्त के मुताबिक परिवर्तन और सुधार करने की। मानव मजदूरी ज्यादा न लगे, उत्पादन और गुणवत्ता बेहतर होने के साथ-साथ अच्छी आय हो, इसके लिए राज्य सरकार दिशा-निर्देश दे और लोगों को प्रशिक्षित करने का पाठ्यक्रम चलाए। सस्ती दरों पर कच्चा माल उपलब्ध कराया जाए और अन्य जो सामान चाहिए, उसके लिए ऋण बिना ब्याज या फिर कम ब्याज दरों पर सुलभ कराए। साथ ही इन उत्पादनों की बिक्री की दिशा में भी सजगता दिखे तो ये हस्तकलाओं की जान बचाई सकती है और इन पर छाई विपदा के बादल छंट सकते हैं। अन्यथा समुचित व्यवस्था के अभाव में फिलहाल ये पिछड़ रही हैं और चंद लोगों का एकाधिकार तो चल ही रहा है। जयपुर की इन पारंपरिक कलाओं को बचाना जहां हमारी सांस्कृतिक आवश्यकता है, वहीं रोजगार की दृष्टि से भी इनके महत्त्व को इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी देखा जाना है कि इनमें कितने बाल मजदूरों का शोषण हो रहा है।