आजकल किसी सम्मेलन, सभा या कार्यक्रम में जाएं तो कई बार उपहार के रूप में पौधे मिलते हैं। अक्सर ये बांस के पौधे होते हैं। पौधों को उपहार में देना दरअसल पौधों के प्रति चिंता जताना है। यही नहीं, पौधे या पेड़ हमारे जीवन के लिए कितने जरूरी हैं, यह भी बताना है। कई होटल अपने यहां उपयोग में आने वाले नींबू के बीजों से पौधे तैयार करते हैं और उन्हें अपने ग्राहकों को उपहार में देते हैं। बहुत-से आभिजात्य कहे जाने वाले लोग जन्मदिन और शादी के उपहार के रूप में भी पौधे देने लगे हैं।

अगर किसी ने बांस के वृक्षों को देखा हो तो उन्हें पता होगा कि वे कितने लंबे-चौड़े होते हैं। इन्हें दुनिया की सबसे बड़ी घास कहा जाता है। इन्हें इतने छोटे-छोटे गमलों में लगा देख कर ऐसा महसूस होता है जैसे किसी ने इनके विकास को रोक कर इन्हें बौना बनने पर मजबूर कर दिया हो। बोन्साई यानी बड़े-बड़े पेड़ों को छोटे-छोटे गमलों में लगा देखना काफी तकलीफ देता है। विशालकाय बरगद, आम, नीम, अशोक जब इनमें लगे दिखते हैं, तो उनकी हालत देख कर अफसोस होता है। उनकी कराह सुनाई नहीं देती तो क्या वह होती ही नहीं। गमले में लगे इन पेड़ों को कई बार जमीन में लगाने का मन करता है। मगर कैसे! महानगरों में जो लोग फ्लैटों में रहते हैं, वे पेड़ों के लिए अपने घर में कच्ची मिट्टी वाली जमीन कैसे और कहां से तलाशें! पेड़ों के प्रति संवेदनशीलता होने के बावजूद ऐसी मजबूरी है जिससे निजात नहीं पाई जा सकती।

बताया जाता है कि जब कोई पेड़ काटने के लिए कुल्हाड़ी लेकर उसकी तरफ बढ़ता है तो पेड़ डर से कांपने लगता है। यह कितना सही है, इसका अनुभव मुझे तो नहीं है, लेकिन एक अध्ययन में यह भी बताया गया था कि पेड़ हत्यारे को भी पहचानते हैं। यानी वे अच्छे और बुरे, मित्र और हत्यारे तक की पहचान कर सकते हैं। हमें इसका अहसास नहीं है तो शायद यह हमारा अज्ञान है। यों परंपरा से हम जानते हैं कि पेड़ों में जीवन होता है। उनके भी सुख-दुख होते हैं। हां, उनके भेजे संदेशों या उनकी भाषा को हम नहीं समझ सकते या समझना नहीं चाहते।

महान वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने यह शोध किया था और साबित किया था कि पेड़ों में भी जीवन होता है। एक बार जब वे शाम के वक्त किसी पौधे को छू रहे थे, तो उनकी दादी ने कहा था कि पौधे को तंग मत करो। वह सो रहा है। इसी पर उन्होंने सोचा कि सोते-जागते तो वे हैं जो जीवित हों। और इसी आधार पर शोध कर साबित किया कि पौधों में जीवन होता है। हालांकि भारतीय मानस में पौधों को जीवित मानने की परंपरा रही है।

इसे घर की महिलाएं और लोग विज्ञान के मोटे-मोटे पोथे पढ़े बिना भी जानते रहे हैं। लेकिन हमारे वैज्ञानिक सोच की खासियत यही है कि वह तब तक किसी बात को नहीं मानती, जब तक कि उसे किसी प्रयोगशाला में साबित न किया गया हो। जीवन की प्रयोगशाला का शायद इस सोच के लिए कोई महत्त्व नहीं है। जबकि जीवन के अनुभवजन्य ज्ञान, जो खान-पान, मौसम, चिकित्सा और जल से भी जुड़े हैं, वे सदियों से चले आए हैं और उन्होंने मनुष्य को लाभ पहुंचाया है। आयुर्वेद तो दवा के साथ इसीलिए पथ्य और परहेज पर ध्यान देता है। हमारी रसोई ही सबसे बड़ा मेडिकल स्टोर है। खान-पान की चीजें जो रोज भोजन में मौजूद रहती हैं, उन्हें कुछ कम या अधिक मात्रा में अगर औषधि के रूप में प्रयोग किया जाए, तो हमारे शरीर पर उनका कोई नकारात्मक असर भी नहीं पड़ता है। जिन्हें दवाओं के दुष्परिणाम कहते हैं, वे नहीं होते।

पुराने जमाने में इसी ज्ञान का परिणाम था कि घर-घर में नीम और तुलसी के औषधिमूलक पेड़-पौधे लगाए जाते थे। इमली के पेड़ के नीचे भूत का डर दिखा कर सोने से मना किया जाता था। बताया जाता है कि इमली के पेड़ के नीचे सोने से शरीर पर पेड़ से निकलने वाली अम्लीय गैस का भारी दुष्प्रभाव पड़ता है। यह धारणा थी कि लोगों को जब तक डराया नहीं जाए, वे नहीं मानते। इसी क्रम में यह अंधविश्वास पैदा हुआ होगा। लेकिन इसका आधार वैज्ञानिक था।

परंपरा जो ज्ञान हमें सौंपती है, वह सिर्फ अंधविश्वास नहीं होता, जैसा कि आजकल कुछ लोग मानते हैं। परंपरा का ज्ञान हमारे जीवन और पर्यावरण संरक्षण के लिए इतना जरूरी है कि जगदीशचंद्र बोस की दादी की कही बात उनके लिए वरदान बन जाती है।