अरविंद दास
समकालीन मीडिया परिदृश्य पर सोशल मीडिया और टेलीविजन हावी हैं। सूचना क्रांति से लैस इन माध्यमों में खबरों के उत्पादन और प्रसारण की हमेशा हड़बड़ाहट रहती है। ‘ब्रेकिंग न्यूज’, ‘फास्ट न्यूज’ पर जोर रहता है। हालांकि मीडिया विमर्शकारों के बीच प्रिंट मीडिया या समाचार-पत्र जैसे पारंपरिक माध्यम की अहमियत फिर से बढ़ी है। ऐसे में डेढ़ सौवें जयंती वर्ष में महात्मा गांधी की पत्रकारिता और उनके मूल्यों को याद करना जरूरी लगता है। वे राजनेता, विचारक के साथ-साथ एक कुशल पत्रकार भी थे। जब वे बैरिस्टर की पढ़ाई करने लंदन गए तब कानून के एक छात्र के रूप में पत्रकारिता से उनका सामना हुआ। साथ ही, सन 1890 में ‘द वेजिटेरियन’ में छह लेखों की एक शृंखला से उनके पत्रकारिता कर्म की शुरुआत हुई। इन लेखों में उनके एक सजग आलोचक रूप के दर्शन होते हैं। बाद में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधीजी ने पत्रकारिता के माध्यम से जो भूमिका निभाई, भारतीय जनमानस और पत्रकारों को जिस रूप में उद्वेलित किया, वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास की एक धरोहर है। गांधीजी के सत्य और अहिंसा के विचारों की गहरी छाप हिंदी अखबारों पर खासतौर पर पड़ी। उस दौर में हिंदी के अधिकतर पत्रकार-संपादक स्वतंत्रता सेनानी भी थे।
जहां गांधीजी के द्वारा संपादित पत्रों- ‘यंग इंडिया’, ‘नवजीवन’, ‘हरिजन’ आदि की चर्चा होती है, वहीं ‘इंडियन ओपिनियन’ पत्र के साथ उनका जुड़ाव हमारे विचार-विमर्श में शामिल नहीं हो पाता। कहीं न कहीं छूट जाता है। असल में दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास (1893-1914) के दौरान गांधीजी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ के साथ जुड़ कर अपने विचारों की धार को तेज किया जो बाद के उनके सत्याग्रह और पत्रकारीय कर्म में काफी महत्त्वपूर्ण साबित हुआ था। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में इस पत्र के बारे में लिखा है- ‘मनसुखलाल नाजर इसके संपादक बने। पर संपादन का सच्चा बोझ तो मुझ पर ही पड़ा।’ दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की लड़ाई, भारतीयों के अस्मिता संघर्ष में इस पत्र की केंद्रीय भूमिका थी। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के बिना सत्याग्रह असंभव होता।
1903 में इंडियन प्रिंटिंग प्रेस से निकलने वाला यह एक बहुभाषी पत्र था। अंग्रेजी के अलावा गुजराती में यह पत्र प्रकाशित होता था। साथ ही कुछ समय तक यह तमिल और हिंदी में भी छपा। इतिहासकार उमा धुपेलिया मिस्त्री ने नोट किया है कि ‘इस पत्र के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना तब घटी, जब गांधी ने 1904 में इसे डरबन से चौबीस किलोमीटर दूर फीनिक्स के सौ एकड़ फार्म में पुनर्स्थापित किया। यह गांधी पर लियो टॉलस्टाय और जॉन रस्किन का प्रभाव दिखलाता है। ‘इंडियन ओपिनियन’ का इतिहास फीनिक्स आश्रम से साथ अंतर्गुंफित है।’ यह विचार प्रधान साप्ताहिक समाचार पत्र भारत, अफ्रीका और ब्रिटेन में मौजूद पाठकों को लक्षित था। पत्र का मुख्य लक्ष्य पाठकों में चेतना का विकास और नैतिक बल विकसित करना था। इसके लिए गांधीजी ‘इंडियन ओपिनियन’ में सुदूर देशों के पत्रों से संकलित सार-संग्रह को प्रकाशित किया करते थे। पत्र की भाषा उन्होंने सहज और सरल रखी। विचारों और खबरों के संप्रेषण और संपादन के लिए जो तरीका उन्होंने अपनाया, वह साम्राज्यवाद विरोधी और मशीनी दखल से जिरह करता हुआ नजर आता है।
सन 2013 में हावर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी इतिहासकार इसाबेल हॉफ्मायर की किताब ‘गांधीज प्रिंटिंग प्रेस: एक्सपेरिमेंट इन स्लो रीडिंग’ में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि किस तरह गांधी ने खबरों के उत्पादन, प्रसारण और पढ़ने के तरीकों के लिए धीमी गति की पत्रकारिता पर जोर दिया। वे अपने लेखों में पाठकों को समाचारपत्र पढ़ने की गति धीमी रखने और पाठ को बार-बार पढ़ने को कहते थे। पाठकों का मनन और चिंतन उनकी चिंता के केंद्र में था। यह सब गांधीजी के सत्याग्रही तेवर को दिखाता है। वे हर पाठक में एक सत्याग्रही की संभावना देखते थे। उल्लेखनीय है कि गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती के पाठकों के लिए ही ‘हिंद स्वराज’ की रचना की थी, जहां पाठक और संपादक के बीच संवाद प्रमुख है।
सवाल है कि गांधीजी की ‘धीमी पत्रकारिता’ के प्रयोग को हम किस रूप में देखें। सोशल मीडिया और टीवी समाचार चैनल आज भी सच दिखाने, सच के साथ खड़े होने, सत्ता से सच बोलने की बात करते हैं। जाहिर है, उनका आग्रह भी सत्य के साथ ही है, पर गांधी के सत्याग्रह के ये कितने करीब कहे जा सकते हैं? ‘फेक न्यूज’ के इस दौर में मुख्यधारा की पत्रकारिता की जवाबदेही राष्ट्र-राज्य और नागरिक समाज के प्रति पहले से कहीं ज्यादा है। पर क्या तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर उनका जोर है? गांधीजी ने ऐसी पत्रकारिता की परिकल्पना की थी जो राज्य और बाजार के दबाव से मुक्त हो। सवाल यह भी है कि आज का पाठक खुद को पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य में कहां खड़ा पाता है?
