गांवों में वक्त के साथ आए अनेक बदलावों के बावजूद परंपरा के प्रयोग लगातार चलते रहते हैं। लिहाजा परंपरा की प्रयोगधर्मिता को बनार रखने में गांव सर्वाधिक संपन्न सामाजिक संस्थान की भूमिका निभाते हैं। हालांकि शहरों की अपेक्षा गांवों में सुविधाओं का अभाव जरूर होता है, मगर सकारात्मक ऊर्जा के संदर्भ में गांव कहीं अधिक समृद्ध होते हैं। पिछले कई सालों में भले ही बदलते समय के साथ रोजगार आदि के चलते गांवों से पलायन बढ़ा है, लेकिन गांव अपनी पारंपरिक अस्मिता को बनाए रखने में आज भी सक्षम हैं।शहर में अनजान व्यक्ति से भय और असुरक्षा की भावना का आना आम बात है, लेकिन गांव में ऐसा नहीं हैं। आमतौर पर गांव में आज भी लोग एक जगह बैठते, उठते मिल जाएंगे।
मगर खासकर कंपकंपा देने वाले जाड़े में जब घर से निकलना दूभर हो, ऐसे में ‘कऊ’ यानी अलाव ही एकमात्र जगह होती है, जहां लोग फुरसत से बैठते हैं और अपनी बात कहते, सुनते हैं। यहां तक कि कई बार बड़े से बड़े मसले भी ‘कऊ’ पर समाधान पाते देखे गए हैं। कहा जाता है कि गांव की दशा ‘बाड़े’ ही बयान कर देते हैं। गांव में किसी नव आगंतुक का संबंधित गांव से भली-भांति परिचय करवाने में ‘कऊ’ ही कहीं अधिक सक्षम रही है, जहां मनोरंजन के अलावा समाज के सार्थक मसलों पर भी बातचीत होती है। सर्दियों में रात के भोजन के बाद चादर लिये हर कोई अलाव की जरूरत महसूस करता है, तब गांवों में यह कमी ‘कऊ’ पूरी करती है। यहां पीठ पर ठंड के थपेड़े खाकर भी लोग भीतर से ताप पाते हैं। साथ ही सिंके हुए आलू से लेकर भुनी शकरकंद और मूंगफली आदि अलाव पर बड़े चाव से लोगों की बातों का स्वाद बढ़ाते हैं।
पुराने समय में अलाव के इर्दगिर्द तीन-चार पीढ़ियों का एक साथ बैठना आम बात थी। इससे जहां आपसी संवाद की परंपरा आकार पाती थी, वहीं बड़ों के अनुभवों से सीखने के अवसर भी प्राप्त होते थे। हर साल लगभग बड़ा दिन यानी पच्चीस दिसंबर से गांवों में नियत स्थानों पर कऊ की शुरुआत की जाती रही है, जो जनवरी की कड़क सर्दी से होते हुए फरवरी तक जलाई जाती है। गांव में रात के समय आवारा पशुओं आदि से फसल की रखवाली करने वाले किसानों के यहां ‘अलाव’ सर्दी में रात काटने का बेहतर जरिया रहा हैं। बदलते वक्त और व्यस्तता के चलते भले ही ‘कऊ’ कल की बात हो गई है, मगर उसकी महत्ता आज भी उतनी ही है।भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के प्रभाव से ग्रामीण समाज भी अछूता नहीं रहा है।
कुछ समय पहले जिसे पास के कस्बों के रेस्तरां में ‘फास्टफूड’ खाते और छोटे मॉलनुमा बाजारों में ‘विंडो शॉपिंग’ करते देखा जा सकता था, उस ग्रामीण मानस का हाल ही में हुई नोटबंदी के बाद ‘बाजार’ से मोहभंग हो चुका है। लिहाजा रुपए की सीमित मात्रा के चलते जरूरत की वस्तुओं से इतर हर-कुछ खरीदने की प्रवृत्ति पहले की तुलना में कम हुई है। इसे भारतीय संदर्भों में ‘उपभोक्तावाद’ को लगा झटका माना जा सकता है, क्योंकि मौजूदा स्थितियों के बरक्स ‘बाजार’ द्वारा अपने ग्रामीण उपभोक्ता को फिर से बाजार में लाने के लिए आने वाले कई वर्षों तक मशक्कत करनी पड़ेगी। अपनी बुनियादी संरचना के चलते ही ऐसी परिस्थितियों में भी कस्बों और शहरों की अपेक्षा गांव कम प्रभावित हुए।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में समस्त विश्व को एक आदर्श गांव की तर्ज पर देखने की बात हमेशा कही जाती रही है, लेकिन एक बड़ा फर्क ‘ग्लोबल गांव’ और सामान्य गांव की अंत:संरचना में देखा जा सकता है। भूमंडलीकरण की व्यवस्था जहां पूरी तरह आर्थिक क्रियाकलापों पर टिकी है, वहीं ग्रामीण व्यवस्था पारंपरिक और भावनात्मक संबंधों पर आधारित है। गांव में जरूरत के समय पड़ोसी से रसोई की चाय-शक्कर जैसी चीजों से लेकर खेती के उपकरणों तक कुछ भी उधार लिया जा सकता है। जबकि बाजार में फाइनेंस या कर्ज की सुविधा उपभोक्ता को लुभाने और मात्र ब्याज वसूलने के लिए दी जाती है। वहीं गांव में लिहाज के लिए हर कोई हरसंभव मदद करता है, क्योंकि कऊ की बैठक की भांति गांव के घर आपसी भावनात्मक संबंधों में बंधे होते हैं।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से वैश्विक पहचान पाए आधुनिक पर्व पर प्लास्टिक के पेड़ में जगमगाते बल्बों और परंपरा से तुलसी के पौधे के समक्ष जलते दीपक का अंतर, जैसे ढेरों उदाहरण ‘कऊ’ की बैठक में आसानी से समझ कर परंपरा की प्रयोगधर्मिता पर आश्चर्यचकित हुआ जा सकता है। दरअसल, ‘कऊ’ आज भी बुजुर्गों का दिया एक सुंदर विकल्प है, जहां बैठ कर व्यक्तिगत दुनिया से बाहर झांकना संभव है। इस बार क्रिसमस वाले दिन से गांव में ‘कऊ’ का प्रबंध करना सुखद अनुभव इसलिए रहा कि महज एक-दो दिन बाद ही तीन पीढ़ियां इस पर जमा होने लगीं। खासकर अपने मोबाइल फोन में उलझी ‘कऊ’ की सार्थकता से परिचित हमारी पीढ़ी, जिसके बचपन की सर्दियां अलाव से तपती रही हैं।