हवाओं में प्रेम की खुशबू तारी है और बाजार इसे हवा दे रहा है। ऐसे में यह सोचना लाजिमी है कि प्रेम है क्या! घनानंद कह गए हैं- ‘अति सूधो सनेह को मारग है जहां नेकु सयानप बांक नहीं/ तहां सांचे चले तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसांक नहीं।’ यानी प्रेम सरलता और सच्चाई की मांग करता है। उसमें कतई बेईमानी संभव नहीं। प्रेम की कसौटी पारदर्शिता, आदर, विश्वास, प्रतिबद्धता आदि से जोड़ी जाती रही है। प्रेम को अनेक खानों में भी बांटा गया है, जैसे राष्ट्र प्रेम, मित्र प्रेम, वात्सल्य, दांपत्य से लेकर ईश्वर तक- सब प्रेम के दायरे में आते हैं। प्रेम के अनेक रूप हैं। एक ओर इसमें ऐंद्रिकता है, मन का गहन राग भाव है और कहीं शृंगारिक पक्ष भी। आजकल इसमें ‘फ्लर्ट’ यानी खिलवाड़ भी शामिल हो गया है।
कहीं किसी लेखक का किस्सा पढ़ा था। वह अपने लेखन कार्य में इतना व्यस्त रहता था कि उसे अपनी पत्नी का बिल्कुल ध्यान नहीं रहता था। एक दिन उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई। पत्नी के चले जाने के बाद जब भी वह लिखने बैठता, उसे लगता कि कहीं कुछ है जिसकी वजह से वह अपना ध्यान लेखन पर केंद्रित नहीं कर पाता। तब उसने यह अनुभव किया कि जब भी वह लिखता था, तब उसकी पत्नी सामने कुर्सी पर बैठ कर स्वेटर बुना करती थी। तब सलाइयों की महीन आवाज आती थी उस पृष्ठभूमि में! उसकी कल्पना तेजी से दौड़ती थी। उन सलाइयों की आवाज को वह ‘मिस’ कर रहा था।
वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों ही पक्ष प्रेम के हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में संबंध रिश्तों से ही कायम होते हैं। प्रसिद्ध हरियाणवी लोकगीत ‘मेरा दामण सीमा दे रे ओ ननदी के बीरा’ में पति को ननद का भाई कहा गया है। जीवन के खटमीठे रंग इसी प्रेम की देन हैं। केदारनाथ अग्रवाल की कविता है- ‘प्रेम ब्याह कर संग में लाया।’ यानी दूल्हे राजा गए तो विवाह करने, मगर पत्नी नहीं, प्रेम को ब्याह कर लाए। भारतीय परिवेश में प्रेम का यही रूप स्वीकार्य है। यों प्रेम पर सामाजिक पहरेदारी के होते हुए भी प्रेम और प्रेमी दोनों, इससे जूझते रहते हैं। कहीं खाप पंचायतों का पहरा तो कहीं किसी और प्रकार की विवशता।वर्तमान समय में प्रेम के अनेक रूप हैं। एक प्रेम ‘मेघे ढाका तारा’ या ‘आधारशिला’ फिल्म की नायिका का था जो परिवार की अकेली कमाऊ होने के कारण प्रेम करने के बावजूद विवाह नहीं कर पाती। कई जगह अब भी यही स्थिति है। किशोर वय का प्रेम, समझदारी का प्रेम, आपस में कई विषयों पर विभिन्न मत होते हुए भी बहस वाला प्रेम भी है। गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो उनके मित्र के साथा उनका झगड़ा हुआ, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सत्य के प्रयोग’ में लिखा- ‘यह हमारा अंतिम प्रेम युद्ध था!’
प्रेम है तो जीवन है, अन्यथा जिंदगी नीरस और ऊबाउ है। प्रेम का धरातल बहुत विशाल है और इसकी सच्चाई की परख बहुत ही मुश्किल है। रंग बदलती दुनिया में प्रेम भी रंग बदल रहा है। जिसके साथ बैठना अच्छा लगे, बात करना अच्छा लगे, जिसके साथ आप अपने दिल को खोल सकें, वह प्रेम का पात्र है या फिर वह, जिसके खयालों से सुबह और शाम हो। प्रेम की अनिवार्य शर्त अनन्यता भी है। आज प्रेम के अध्ययन की दुनिया विराट हो गई है। समाजशास्त्री इसमें शुरू से ही शिरकत करते रहे हैं, लेकिन अब स्नायुशास्त्री वैज्ञानिक मनोविज्ञान, दर्शन से लेकर इतिहास तक इसके दायरे को टटोल रहे हैं। स्त्री और पुरुष के प्रेम संबंधी दृष्टिकोण को अलग-अलग समझना प्रेम को खांचे में बांट कर देखना नहीं है। पर वास्तविकता यही है जेंडर स्टडी के मुताबिक यह अनुभव दोनों को भिन्न रूप में होता है, क्योंकि हर समाज में दोनों की स्थिति भिन्न है।वैश्विक पैमाने पर देखा जाए तो भारतीय प्रेम त्रिकोण और प्रेम की देवदासी मुद्रा बेमानी है। मेरे एक अजीज मित्र ने बताया कि विदेशी विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए जब उन्होंने ‘देवदास’ फिल्म पर चर्चा की तो वे विद्यार्थियों को बड़ी मुश्किल से समझा पाए कि देवदास की समस्या क्या है! उसे पारो से प्रेम है तो क्यों नहीं उसे लेकर वह कहीं चला गया? और अपने को मिटाने का क्या मतलब था? खुद को मिटा कर प्रेम करने की इस अवधारणा के बरक्स स्व-प्रेम के विचार को देखा जा सकता है, जहां ‘स्व’ प्रेम- प्रेम के दोनों सिरों, यानी खुद से और प्रेम पात्र, दोनों से ही प्रेम करने पर बल देकर प्रेम के प्रजातंत्र की बात करता है। लेकिन सच यह है कि आज प्रेम सामाजिक संरचना से लेकर राजनीति दोनों का शिकार है। ‘लव जिहाद’ से लेकर ‘एंटी रोमियो स्क्वाड’ तक के निशाने पर प्रेम है। हालांकि प्रेम के गहन अहसास के लिए यही कहा जाता है कि जब तक कोई खुद इससे न गुजरे, इसे समझा नहीं जा सकता।