घर से मैं बाहर निकली ही थी कि कुछ फुसफुसाहट जैसा सुन कर रुक गई। दो व्यक्ति आपस में बात कर रहे थे। उनमें से एक दबी आवाज में कह रहा था,‘अरे सुना है, आशा का तलाक हो गया!’ मेरा मन खिन्न हो गया। मैं आशा को अच्छी तरह से जानती थी। कुछ समय पहले ही उसका विवाह हुआ था। वह शादी को लेकर काफी उत्साहित थी। कारण जानने का प्रयास किया तो पता चला कि उसकी सास छुआछूत की बीमारी से ग्रस्त थीं। लेकिन इन बातों से तलाक का क्या संबंध! मैंने बुदबुदाते हुए खुद से कहा। लेकिन बहुत धीरे से बोली गई मेरी बात शायद वहीं पास में खड़ी मिसेज खन्ना को सुनाई दे गई थी। उन्होंने कहा कि उसकी सास ने उस बेचारी पर इतने जुल्म ढाए! उसे सर्दी में ठिठुरते हुए काम करते रहना पड़ता था। उसकी सास छिपकली को अशुभ मानती थी। अमूमन छिपकली घर में रखे कपड़ों के आसपास घूम जाती थी। अगर उनमें से कोई कपड़ा आशा पहन लेती थी तो उसकी सास उसे अछूत घोषित कर देती थी। कई और ऐसी बातों को लेकर वे छुआछूत बरतती थीं और घर में असहज और अप्रिय वातावरण बना देती थीं। शायद इसी से कोई विवाद उपजा हो और बात बढ़ गई हो।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज के युग में स्त्रियों की दशा में काफी सुधार हुआ है। उन्होंने घर से बाहर का भी मोर्चा संभाला है। ऐसी तमाम महिलाएं हैं जिन्हें अब सिर्फ पति के पैरों की जूती बन कर रहना गवारा नहीं है। वे भी पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। इसके बावजूद अपनी बेटियों के सुखद जीवन को लेकर आज भी हर मां-बाप आश्वस्त नही हैं। खासतौर पर जहां सास-ननद का व्यवहार बहू के प्रतिकूल हो तब तो उसका सिरा पति-पत्नी के रिश्तों में दरार तक पहुंच ही जाता है। कोई झूठे भ्रम और अहंकार का शिकार हो तो भी गलत परिस्थितियां पैदा होते देर नहीं लगती। जब तक सही-गलत का अंदाजा लगता है, तब तक पानी सिर से ऊपर निकल चुका होता है।

आज समाज इक्कीसवीं सदी के दौर में है। हम खुद को अत्याधुनिक मानते हैं। लेकिन सवाल है कि इस तेजी से बदलते परिवेश और आधुनिकता के दौर में भी क्या हम स्त्रियों की दशा से पसीजे नहीं हैं? अनेक तरह की पहल होने के बावजूद क्यों अब भी हमारे समाज में स्त्रियों की दशा में पर्याप्त सुधार नहीं हुआ है? आशा जैसी न जाने कितनी स्त्रियां अब भी कुछ घोर विषम और भेदभाव वाली परंपराओं, रूढ़ियों, दकियानूसी विचारों आदि के कारण बिखरते परिवार, टूटन आदि समस्याओं से उबर नहीं पा रही हैं। कितनी ही लड़कियां मां-बाप के घर से विदाई के समय आंखों में चमक, चेहरे पर खुशी, मन में उमंग और भावी सपनों का ताना-बाना लिये निकलती हैं। लेकिन ससुराल की दहलीज पर कदम रखते ही उन्हें हकीकत का पता चल जाता है।

कोई भी महिला कभी यह नहीं चाहती कि उसका घर बसने से पहले ही टूट जाए। उसके अरमान बिखर जाएं। लेकिन न चाहते हुए भी अगर किसी रिश्ते की मौत होती है तो यह समझना चाहिए कि किसी गल चुके अंग को संभाल कर रखने से अच्छा है कि आॅपरेशन करके उस अंग को काट कर अलग कर दिया जाए। वरना वह अंग शरीर के बाकी अंगों को भी गला देगा। आवश्यकता इस बात की है कि बदलते समाज के ढांचे को सुरक्षित रखने के लिए उसकी कड़ियों को भी मजबूत बनाया जाए। यानी परिवारों को टूटने से बचाने के लिए स्त्रियों को प्यार व सम्मान देना होगा। मां-बाप को छोड़ कर आना किसी स्त्री के लिए कितना कष्टदायी होता है, यह सिर्फ वही जानती है। अगर उन्हें ऐसे में पति का उचित सहयोग न मिले तो वह अलग-थलग पड़ जाती है। लेकिन पति या पुरुष साथी का साथ उसके जीवन को संवार कर उसके भीतर के नए अध्याय खोलेगा, रिश्तों को नया आयाम देगा। आखिर उस स्त्री के कुछ अधिकार भी हैं।

जबकि तलाक से एक रिश्ते की मौत होती है, जिसकी चुभन किसी भी महिला को जीवन-भर सहनी पड़ सकती है। तलाक के बाद कुछ महिलाएं तो अपने भरोसे नया जीवन जीने नई राह पर चल निकलती हैं। लेकिन परंपरागत मानस में जीने वाली बहुत सारी महिलाएं मुरझाए फूल की तरह हो जाती हैं। पूरी जिंदगी उन्हें यह बात कचोटती रहती है। स्त्री-पुरुष एक गाड़ी के दो पहिए हैं। एक पहिया के अलग होते ही गाड़ी का संतुलन बिगड़ जाता है और जीवन की रफ्तार थम जाती है। आज समाज में इस स्तर पर एक बदलाव लाने की जरूरत है, जिसमें स्त्री खुद को पुरुष के बराबर एक इंसान समझे। एक परिपक्व विचार वाला समाज बने।