बृजमोहन आचार्य
बरसात के बाद जब शहर में घूमने निकला तो एक जगह पर मेरे कदम अचानक ही रुक गए थे। जब चारों तरफ नजर दौड़ाई तो तीन-चार बच्चे बरसात से भीगी हुई मिट्टी से नया सृजन कर रहे थे। कुछ देर तक मैं उन बच्चों को निहारता रहा। उनकी एक-एक गतिविधि पर मेरी नजरें टकटकी लगाए रहीं। झोपड़पट्टी में रात गुजारने वाले इन बच्चों के चेहरे पर बरसाती पानी से गिली हुई मिट्टी से घरौंदा बनाते समय जो उत्साह और जो संतुष्टि देखी थी, वैसी संतुष्टि मैंने महल और हवेलियों में रहने वाले बच्चों के चेहरे पर भी कभी नहीं देखी होगी।
हालांकि ये बच्चे कभी पक्के मकानों में नहीं रहे, लेकिन उनके द्वारा बनाए गए घरौंदों को देख कर मैं यह सोचने के लिए मजबूर हो गया कि अगर इन बच्चों के कच्चे मन को अभी से अच्छी तालीम मिलनी शुरू हो जाए तो ये अपने सपनों को साकार कर सकते हैं। लेकिन सरकारें भी सिर्फ गरीबी मिटाने की बातें ही करती रहती है। जमीनी स्तर पर गरीबी दूर की जाए, इससे शायद उन्हें कोई मतलब नहीं होता। शायद इसलिए कि अगर गरीबी मिट गई तो फिर नेताओं के पास मुद्दे भी नहीं रह जाएंगे। मैंने जब इन बच्चों से पढ़ाई और स्कूल जाने के बारे में पूछा तो वे कुछ जवाब भी नहीं दे पाए थे और वापस घरौंदा बनाने में मशगूल हो गए थे। हालांकि उनके पास एक बैग था। मैंने सोचा इसमें कुछ किताबें और कॉपियां होंगी, लेकिन जब देखा तो पानी की पुरानी बोतल और कुछ सूखी रोटियां थीं। झोंपड़ी में बचपन पालने वाले इन बच्चों ने देखते-देखते एक नहीं, तीन मंजिला घरौंदा बना डाला। इस घरौंदे में सीढ़ियां बनाई गई थीं और पास में कार पार्किंग के लिए स्थान भी छोड़ दिया गया था। बाद में वे बच्चे घरौंदा बना कर वापस चल पड़े, पेट भरने के लिए कहीं रोटी का इंतजाम करने।
मैं कुछ देर वहां खड़ा होकर इन सृजनशील बच्चों के भविष्य के बारे में गहरे चिंतन के तालाब में गोते खाने लगा। लेकिन जब मैं बड़े शहरों के बच्चों के बारे में सोच रहा था तो उनके हाथ में मोबाइल पर चलती अंगुलियां और भारी-भरकम बस्ते नजर आने लगे।
आज हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा घर से बाहर न निकले और हर वक्त बस्ते के बोझ में दबा रहे। अभिभावकों ने यह कभी नहीं सोचा कि बच्चों पर बस्ते का बोझ नहीं डाला जाए और टीवी-मोबाइल आदि से दूर रख कर उनके मन में भी कुछ सृजन करने की बात को बिठाया जाए। जब स्कूलों में ग्रीष्मावकाश होता है तो भी बच्चों को स्वतंत्र जीवन जीने की छूट नहीं होती है। उनके लिए तो नानी की कहानियां और घूमने-फिरने का आनंद ही समाप्त हो गया है। अब अवकाश होने के साथ ही उन्हें ऊंची फीस वाले कई तरह के शिविरों में भेज दिया जाता है, जहां उसी पाठ्यक्रम से अवगत करा दिया जाता है, जो आमतौर पर उनके स्कूलों में पहले से होता है। लेकिन अभिभावक सोचते हैं कि अगर बच्चों को मिट्टी का घरौंदा बनाने और मौज-मस्ती की आजादी दे दी गई तो वे पढ़ाई में पिछड़ जाएंगे और भविष्य की दौड़ में हार जाएंगे। यह सही है कि बच्चों की आजादी पर थोड़ा अंकुश भी होना जरूरी है, क्योंकि ज्यादा आजादी देने से वे गलत पगडंडी भी पकड़ सकते हैं। मगर यह भी उचित नहीं है कि बच्चे के कच्चे मन को मार ही दिया जाए। किसी कवि ने कहा भी है कि ‘चलो वह अधूरा घरौंदा पूरा करें या एक नया घरौंदा बनाएं/ चलो छोड़ दें शर्म-झिझक/ अब भूल भी जाएं कि हम बड़े हो गए हैं/ आओ अतीत में लौट जाएं एक बार फिर से बच्चे बन जाएं।’
आज शहरों का विस्तार होने के कारण मिट्टी तो गायब ही हो गई है। एक-दूसरे चौराहे को जोड़ती सड़कें और ऊंची खड़ी इमाकतों के सामने घरौंदे बनाने की हिम्मत किसकी होती है! नहीं तो एक समय वह भी था, जब बरसात से नहाई हुई मिट्टी से बच्चे कई तरह का सृजन करते थे और मन भी प्रफुल्लित होता था। अब तो गांव भी शहरों की तरह होने लगे हैं। गांवों में भी मोटरगाड़ियां दौड़ने लगी है, कुओं के मीठे पानी की जगह बोतलबंद पानी ने अपनी जगह बना ली है और छाछ-राबड़ी का स्थान ठंडे पेयों और तुरंता खाद्य पदार्थों ने ले लिया है। घरौंदे को लेकर कवयित्री निशा भोंसले अपनी एक कविता में कहती हैं- ‘लड़की बनाती है घरौंदा/ रेत का समंदर के किनारे बुनती है सपने/ अपने सुनहरे भविष्य के/ घरौंदे के साथ चाहती है समेटना/ रेत को अपनी मुट्ठियों को घरौंदे के साथ/ टूटता है बार-बार घरौंदा अपने आकार से।’