एक दिन पहले साल में रस्म की तरह फिर से दिवस के तौर पर गायब होते प्यारे पक्षी गौरैया के लिए फिक्र जता ली गई। इसके बाद अब हम सब अपनी-अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को सुविधाजनक बनाने में लग जाएंगे। उसमें गौरैया की याद भी शायद नहीं हो। पिछले दिनों मैं नानी के गांव गई। शहरों में रोज नए बदलाव हो रहे हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों की सैकड़ों-हजारों की आबादी के लिए कमरे हैं, दरवाजे-खिड़कियां हैं, बालकनी भी है। बच्चों के खेलने-कूदने और बड़ों के टहलने के लिए सामूहिक पार्क हैं। लेकिन जिसे हमारे यहां घर के रूप में जानते हैं, उसके लिए आंगन और खुली जगह के नाम पर कुछ नहीं है। यों अब गांव भी बहुत तेजी से बदलने लगे हैं। लेकिन संयोग से नानी के घर पहले की तरह अब भी आंगन है। हल्की ठंड थी तो मैं और मामी आंगन में बैठ कर बातें करने लगे। पास में एक परात में पानी भर कर रखा हुआ था। कुछ देर में चार गौरैया आर्इं और उस पानी में नहाने लगीं। बिल्कुल हमारे पास। मैं बेहद खुश होकर उन्हें देखती रही। उस वक्त कैमरा नहीं था मेरे पास और मोबाइल भी दूर रखा था। मुझे लगा, उठूंगी तो ये भाग जाएंगी। फिर इन्हें नहाते देखने का सुख भी जाता रहेगा।
वे चारों मजे से देर तक नहाती रहीं। फिर बाहर निकल कर बदन झाड़ा और आंगन में गिरा दाना चुगने लगीं। मैंने मामी से पूछा कि यहां गौरैया रोज आती हैं क्या, तो मामी बोलीं कि इन्हें आदत हो गई है यहां रहने की। अपने मन से आती-जाती रहती हैं। मैं चावल चुनती हूं तो मेरे पैरों के पास से दाना चुन कर खाती हैं… भागती नहीं। बड़ा अच्छा लगता है इन्हें अपने आसपास पाकर। अपने बच्चों-सी होती है गौरैया। इनके होने से घर भरा-भरा लगता है। मुझे बेहद अच्छा लगा देख-जान कर। दरअसल, इन दिनों मेरे घर की छत पर गौरया नहीं उतरती। हां, बहुत सारे कबूतर और कौवे आते हैं, गौरैयों ने आना छोड़ दिया। हालांकि मैं रोज दाना-पानी देती हूं हर सुबह। छत पर जाते ही सैकड़ों कबूतर उतरते हैं, मगर गौरैया नहीं। ध्यान आया कि वाकई अब गौरैयों की संख्या काफी कम हो गई है, इसलिए गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाल दिया गया है और हरेक साल बीस मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया जाने लगा है। लेकिन अफसोस है कि इस एक दिन के बाद गौरैयों के जीवन के सवाल को एक तरह से भुला दिया जाता है। जबकि हमारे साथ गौरैयों का जो जीवन रहा है, उसके नाते यह हमें हमेशा याद रखने की जरूरत है।
पक्षी विज्ञानियों का कहना है कि गौरैया की आबादी में साठ से अस्सी फीसद की कमी आई है। अगर हमें यह आंकड़ा न भी पता हो तो अपने आसपास देख कर जान सकते हैं कि अब नहीं दिखती हैं घर-आंगन में रोज चहचहाने वाली गौरैया। अगर इनके संरक्षण के प्रयास नहीं किए गए तो गौरैया बीते कल की बात हो जाएगी। यों भी शहरी बच्चों को तो अब गौरैया नजर नहीं ही आती है, गांवों में भी कमी हुई है इनकी संख्या में। जबकि कुछ समय पहले तक वे हरेक घर-आंगन में आती थीं… कई घरों में घोसलें बना कर रहती थीं। विज्ञान और विकास ने हमारे सामने नई समस्याएं भी उत्पन्न की हैं। पक्के घरों ने उनके घोंसले छीन लिए तो तेजी से कटते पेड़-पौधे ने गौरैयों का ठिकाना नहीं रहने दिया। कीटनाशकों के इस्तेमाल ने गौरैयों के खाने के अनाज में कमी कर दी तो मोबाइल फोन और टॉवरों की सूक्ष्म तरंगों ने इनके जीवन पर ही सवाल लगा दिया। यह समस्या केवल हमारे देश की नहीं, पूरे विश्व में संकट है और हमें मिल कर गौरैयों को बचाना होगा।
बेशक अब लोग थोड़े जागरूक हुए हैं और इन्हें बचाने के लिए अभियान भी शुरू हो गए हैं। कई गैरसरकारी संस्थाएं भी अपने क्षेत्र में मुहिम चला रही हैं। मगर जब तक हम खुद जागरूक नहीं होंगे, इन अभियानों का कोई ठोस हासिल नहीं होगा। हमें यह महसूस करने की जरूरत है कि प्रकृति से हमारे देखते-देखते एक ऐसा जीव गायब होने की कगार पर है जो हमारे बीच का है और हमें बेहद प्रिय रहा है। हमारी बुजुर्ग पीढ़ियां हमें सिखाती थीं कि घर में गौरैया का बसना इस बात का सूचक है कि हमारे पास धन-धान्य की कमी नहीं। हम परंपरा और संस्कृति से जुड़ी बात कहते हैं, अपने बच्चों को ऐसे सिखाते हैं तो वह असर करती है। इसलिए दशक भर पहले के बच्चे या बड़े कभी घोंसले को नहीं उजाड़ते थे। हमें वापस बुलाना होगा गौरैया को। अपने घर-आंगन में थोड़ी जगह देनी होगी और उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना होगा। दाना-पानी के साथ प्राकृतिक वातावरण भी देना होगा। गौरैया मनुष्य की हमसफर रही है। इनकी चहचहाहट से हमारा आंगन, छत और मन गुलजार रहे, इससे ज्यादा खूबसूरत बात और क्या होगी!
