महेश परिमल

तिनका-तिनका जोड़ कर परिंदे रचते हैं अपना छोटा-सा संसार। चहचहाते और नोक-झोंक करते हुए आखिर वे बना ही लेते हैं एक सुंदर-सा आशियाना। उसके भीतर होती हैं उनकी ख्वाहिशें। उनके हौसलों से बने इस आशियाने की उम्र कोई बहुत बड़ी नहीं होती। हवा का तेज झोंका उसे उड़ा ले जाता है। लेकिन वे हवाओं से नाराज नहीं होते। उनके आशियाने का सबसे बड़ा दुश्मन दरअसल मनुष्य है। उसे नहीं भाता परिंदों का आना, चहचहाना। हम उनके चहचहाने में प्यार ढूंढ़ते हैं, लेकिन कुछ लोगों के लिए उनका चहचहाना किसी शोर से कम नहीं होता। दरअसल, उनके भीतर का शोर इतना अधिक कानफोड़ू है कि बाहर चिड़िया की बोली भी उन्हें ‘आंदोलित’ कर देती है। कभी इंसान बन कर उन परिंदों की हरकतें देखिए, अपना बचपन लौट न आए तो कहिएगा! मगर जिसके लिए धन-दौलत से हट कर भी कोई दुनिया हो सकती है, इसे केवल वही समझ सकता है, जिसके भीतर का बचपन आज भी कुलांचे मारता है।

घर में चिड़ियों और कबूतरों का आना अकसर लगा रहता है। उन्हें दाने देना रोज का काम है। कभी वे अपना घरौंदा यानी घोंसला भी बना लेते हैं। कुछ समय बाद घोंसले में चूजा दिखाई देता है। वे चूजे को खूब लाड़-दुलार करते हैं। उसके पहले वे जिस तरह से अपना घरौंदा बनाते, उसमें उनकी कारीगरी देखने के काबिल होती। वे एक-एक तिनका चोंच में दबाए आते, घोंसले पर रखते और उसे बड़ी खूबसूरती के साथ जमाते। उनकी सहभागिता देखते ही बनती थी। लेकिन इस समय चिड़ियों का कम, कबूतरों का आना अधिक हो गया है। वे कई बार झगड़ते भी हैं, लेकिन प्यार से रहना उन्हें आता है। इसके बाद भी वे अपना घर बनाना नहीं भूलते। इस बार उनकी हरकतों से मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि वे तिनके नहीं, जंग लगे हुए छोटे-छोटे तार के टुकड़े लाने लगे। मैंने सोचा कि क्या शहर में अब तिनकों की कमी हो गई!

यह एक चेतावनी हो सकती है, परिंदों द्वारा मनुष्यों को, कि हम तो जंग लगे तारों के घर में भी रह लेंगे, पर क्या आप रह पाएंगे जब आपके अनुकूल घर न रहें! कंक्रीट के जंगल में अब तिनके भी नहीं मिल रहे हैं। खैर, मैंने उन जंग लगे तारों को फेंक दिया। किसी ने कहा कि आखिर कुछ सोच कर वे पक्षी ऐसा कर रहे हैं… वे रह लेंगे, तारों से बने घरौंदे में। मैंने कहा कि क्या जंग लगे तारों के बीच वे अपने चूजे के साथ रह पाएंगे! जंग लगे तार से हुई चोट खतरनाक होती है। अगर चूजे को तार कहीं चुभ गया तो क्या होगा? तारों को फेंक देने के बाद परिंदों का आना कम हो गया। मैं दुखी था, लेकिन यह नहीं चाहता था कि वे अपने खतरनाक घरौंदे में रहें। शायद इसी सोच ने आज मुझे परिंदों से कुछ दूर कर दिया। परिंदे अब भी आते हैं कभी-कभी, मुझे शिकायत भरी दृष्टि से देखते हैं। वे मुझे कभी उलाहना देते हुए-से लगते हैं। मगर मैं क्या कर सकता हूं! मेरी चिंता यह है कि क्या मेरे शहर में घरौंदे बनाने के लिए तिनकों का अकाल हो गया! तिनके नहीं हैं, इसका मतलब यही हुआ कि दाने भी नहीं होंगे। जब दाने नहीं होंगे तो फिर परिंदें क्या चुगेंगे और कैसे जीवित रहेंगे? फिर कैसा होगा बिना परिंदों के हमारा जीवन? न चिड़ियों का चहचहाना, न कबूतरों की गुटर-गूं, न कलरव और न आकाश में मुक्तविचरते पक्षीवृंद। वीरान हो जाएगा हमारे भीतर का कोई कोना!

एक तरह से यह चेतावनी है हम सब के लिए। हम शायद अपने स्वार्थों के बीच जी लेंगे, लेकिन ये खामोश परिंदे कैसे जी पाएंगे और कितनी असुरक्षित होगी उनकी दुनिया? प्राकृतिक रूप से असुरक्षित होती दुनिया के बीच क्या हम पूरी तरह सुरक्षित रह पाएंगे? आज उन्होंने हमारी देहरी पर जंग लगे तार बिछाए हैं, कल कुछ और भी ला सकते हैं। इसके पहले तिनके लाकर कभी चिनगारी नहीं लाए वे, मगर अब आगे उनके पास क्या चारा होगा! वे हमें बार-बार चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन हम गाफिल हैं अपनी दुनिया में। हम यह भूल गए हैं कि जो प्रकृति के जितना करीब है, वह उतना ही रचनात्मक है। प्रकृति से दूर जाएंगे तो ऊसर हो जाएंगे! फिर हममें रचना के सारे स्रोत सूख जाएंगे। जो रचनात्मक नहीं है, उसमें सामाजिकता की भी उतनी ही कमी होगी। आज के जीवन में जितने संकट हैं, उनका सबसे बड़ा कारण प्रकृति का निरादर ही है। हम न केवल प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, बल्कि उसके साथ हमारा व्यवहार बहुत निर्मम किस्म का है। हमें न नदियों की चिंता है, न पहाड़ों की, न जंगल-हरियाली की और न पशु-पक्षियों की। क्या इसके बाद भी हम खुद को मनुष्य कह पाएंगे? क्या अब डूबते को तिनके का भी सहारा नहीं मिलेगा!