फागुन हो या बसंत, कैलेंडर के महीनों के पन्नों की तरह इनका आना-जाना हमारे जीवन का रूटीन बन गया है बस! हमें अपने जीवन की आपाधापी से ही फुर्सत नहीं है। बजट को ठिकाने लगाने के दबाव, बच्चों की परीक्षाओं और आयकर की दुधारी तलवार के कठिन दिनों में आता है फागुन। जैसे कोई बेटिकट यात्री जबरन कोच में आ घुसा हो और अब हालात की शक्ल में टीटीई से नजरें बचाता फिर रहा हो इधर-उधर! पहले फागुन आता था बिल्कुल धमाकेदार प्रवेश के साथ, जैसे एक फिल्म में अमिताभ बच्चन आते हैं दरवाजे पर लात मारते हुए। अब फागुन आता भी है तो चोर दरवाजे से। मानो हमारे जीवन में आकर उसने कोई अपराध कर दिया हो। उसके चेहरे पर से चमक और उल्लास गायब है। पहले उसके आने के पंद्रह दिन पहले से ही उसके संगी-साथी आ धमकते थे। टेसू इतराने, गुनगुनाने लगता था। कचनार फूलने लगती थी। आम्र मंजरियां अपने अपने शृंगार की तैयारी करने लगती थीं। एक अजीब-सी मादकता और मस्ती पूरे माहौल में भरने लगती थी। मोहल्ले के युवा और किशोर होली जलाने के लिए चंदा वसूली के महाभियान पर निकल पड़ते थे। एक-एक मोहल्ले में तीन-तीन होलियां सजती थीं। न मां-बाप टोकते थे, न मोहल्ले के लोग हेय दृष्टि से देखते थे।

घर के सब सदस्य मिलजुल कर कमर कस लेते थे। गुझिया, बेसन पापड़ी और मीठे, नमकीन शकलपारे बनाने के लिए। स्वागत में सत्कार का भाव था और मनुहार में मीठी कशिश। अब ठंडाई और भांग को शराब के स्टेट्स सिंबल ने प्रतिस्थापित कर दिया है। मस्ती और उमंग का भाव फूहड़ता और वाचालता से प्रतिस्थापित हो चुका है। इसने फागुन की गरिमा को कम किया है। शायद इसी के चलते हमारे समाज का पढ़ा-लिखा वर्ग इस त्योहार से दूर छिटक रहा है। फागुन के लिए मन की जो निर्मलता और सहजता का भाव हमें चाहिए, उसका भी अभाव हमारे भीतर होता जा रहा है। जीवन के प्रति हमारी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। भविष्य की चिंताएं मन की अरगनी पर टंग गई हैं। हम दिन भर बनावटी बातों, मौकापरस्त जुगाड़ों और नकली आचरण में व्यतीत करते रहते हैं।
जबकि फागुन मन के बंधनों से मुक्ति का पर्व है। हमारे पुरखों ने हमारे बंद समाज को शायद इसीलिए निर्धारित किया था, ताकि हम खुल कर एक दूसरे पर हंस सकें। अपनी कमजोरियों पर ठहाके लगा सकें। लेकिन लगता है पिछले कुछ दशकों में हमारे अंदर का सहज हास्य-व्यंग्य बोध तेजी से समाप्त होता जा रहा है। उदारता और सहिष्णुता की गलियां संकरी हो गई हैं। तंज तो बहुत कसे जा रहे हैं चुनावी सभाओं में एक दूसरे पर, लेकिन उसमें शुद्ध हास्य-विनोद भाव और निर्मलता कम, आलोचना की तिक्तता अधिक दिखाई देती है।

अब न होरी गायन की धुनें हैं, न हेला गायकी के सुर और तंज और न फाग की मधुर लहरियां। बस चंद फिल्मी पुराने होली गीतों का शोर ही महाबोर करता सुनाई पड़ता है। पहले फागुन के अवसर पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के होली विशेषांक पूरी सज-धज के साथ निकलते थे। लेकिन लगता है बाजारवाद की बयार और जनमानस की अरुचि के चलते ये विशेषांक भी सिमट-से गए हैं। स्कूल-कॉलेजों, मोहल्लों में उपाधि वितरण की परंपरा भी खत्म-सी है। जीवन के कार्य-व्यापार में व्यंग्य बाणों का हम इतना प्रयोग करने लगे हैं कि उनका विशेष अवसरों पर प्रयोग हमें आश्चर्यचकित या आह्लादित नहीं कर पाता।
न नवीन उपमाएं आकर्षित करती हैं और न अनुप्रास के प्रयोग बांध पाते हैं। घर के अंदर हौदी में रंग घोल कर या फिर स्टील या पीतल की पिचकारी से रंग डालने के दिन अब लद गए। पानी की कमी और उसे बचाने की सामयिक मांग ने भी ‘रंग बरसे’ को ‘रंग तरसे’ में तब्दील कर दिया है। रंग प्रेमियों ने रासायनिक रंगों और काले-सफेद पेंट के रूप में सस्ते विकल्प ढूंढ़ लिए हैं जो फागुन में आनंद कम यातना अधिक देते हैं। समाजों के होली मिलन समारोह में मिलन कम अपनी हैसियत के प्रदर्शन और भाषण के इर्द-गिर्द ही समाप्त हो जाते हैं। परीक्षाओं का भूत मां-बाप और बच्चों पर इस कदर तारी है कि फागुन की उमंग दबी की दबी ही रह जाती है। कॅरियर की दौड़ में पिचकारी थामें या किताबें! शायद इसी कश्मकश के बीच पिस जाता है हमारे अंदर का फागुन। खो जाती है उन्मुक्त हंसी।फागुन आता है और घर की गैलरी में चुपके-से आकर खड़ा हो जाता है, पता ही नहीं चलता उसके पदचापों का। सवाल यह है कि अपने अंदर के उत्सव भाव को हम कब तक व्यस्तताओं के दबाव के आगे स्थगित करते रहेंगे! फागुन कब तक हमारे जीवन में पदार्पण की बाट जोहता रहेगा?