ट्विंकल तोमर सिंह
सुनने में यह विचित्र लग सकता है, क्योंकि प्रशंसा का अर्थ हम सराहना से और आलोचना का अर्थ निंदा से लगा लेते हैं। सराहना और प्रशंसा में अंतर होता है। सराहना उठाती है, आगे बढ़ाती है। वहीं प्रशंसा अगर आत्ममुग्ध बना रही है तो समझिए कि वह मीठे जहर के समान है।
आमतौर पर देखा जाता है व्यक्ति गुणी हैं, प्रतिभावान है तो जाहिर-सी बात है कि उसको सहज रूप से प्रशंसा मिलनी शुरू हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि उसके अंदर आत्ममुग्धता, आत्मप्रशंसा का भाव विकसित हो जाता है। ऐसे व्यक्ति अपनी प्रशंसा अपने मुंह से करने में और दूसरे व्यक्तियों से अपनी प्रशंसा सुनने को लालायित रहते हैं। वे अक्सर अपने बारे में बात करना और सुनना पसंद करते हैं।
मित्रों के साथ बैठे होने पर वे ऐसे विषयों का चुनाव करेंगे, जिससे घूम-फिर कर उनके विषय में बात होने लगे। वे भूल जाते हैं कि क्या सूरज खुद कहता है कि उसमें कितना तेज है! क्या सागर को यह प्रशंसा सुनने की अपेक्षा है कि उसमें कितनी गहराई है? प्रशंसा सुनकर आत्ममुग्ध होना घातक है तो स्व-प्रशंसा तो उससे भी बढ़कर हानि करती है। हां, वास्तविक प्रशंसा का स्वीकार अपनी अहमयित रखता है। यह किसी को समृद्ध करेगा।
दरअसल, गुण और अच्छे कर्म इतने सुगंधित होते हैं कि उनके संपर्क में आने वाला व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह हो सकता है हमसे प्रभावित होने वाला व्यक्ति हमारे मुंह पर हमारी प्रशंसा न करता हो, पर मन ही मन हमारी प्रतिभा का लोहा अवश्य मानता है। प्रतिभा का लोहा मित्र ही नहीं, बैरी भी मानते हैं।
पर जब हम अपने मुंह से कहने लगते हैं कि मुझमें अमुक अच्छाई है, अमुक गुण है या अमुक कार्य मैंने किया है, तो उसमें अहंकार झलकने लगता है। अहंकार की भावना हमारे द्वारा किए गए काम की चमक को कम कर देती है। लोगों का ध्यान हमारे कार्य से अधिक हमारे अहंकार और बड़बोलेपन पर ठहर जाता है।
इस स्थिति में अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करने वाले आमतौर पर पीठ पीछे उपहास का पात्र बन जाते हैं। सफलता से ईर्ष्या करने वाले लोगों को एक मौका मिल जाता है। वे सम्मान देने से अधिक व्यंग्य का केंद्र बनाने में रुचि रखने लगते हैं। उनको मुद्दा मिल जाता है कि कोई प्रतिभावान तो बहुत हैं, पर अभिमानी और आत्ममुग्ध है। इसलिए उन्हें अपने गुणों से पराजित करें, अपने बड़े बोलों से नहीं।
एक व्यापक संदर्भ में मुक्तिबोध कहते हैं- ‘दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता।’ कितनी सुंदर बात है यह। याद रखना चाहिए कि किसी का अधिकांश वास्तविक चरित्र इस बात में निहित है कि वह अपने बारे क्या नहीं कहता है। अपने विषय में जो नहीं कहा जाता, वही हमारा वास्तविक परिचय होता है, क्योंकि लोग हमारे शब्दों से अधिक हमारे आचरण, व्यवहार से परखते हैं।
यह संभव है कि किसी को जरा से परिश्रम से अधिक नाम, प्रशंसा मिल जाती है और किसी के हिस्से यश नहीं आता। या आता भी है तो बेहद कम। जब अपने साथ ऐसा भेदभाव देखते हैं तो हमारा अंतर्मन कहता है कि हम अपने ही प्रशंसा-विस्तारक यंत्र बन जाए। प्रशंसा या नाम कमाने की चाह एक प्रकार का लोभ है, यश एक मद है।
क्या पता कि नियति हमें किसी भी प्रकार की होड़ से बाहर रखकर हमारा ही उद्धार करना चाहती हो? क्या हमने कभी किसी मशहूर व्यक्ति के सिर पर जब सफलता का नशा चढ़ा तो उसे बर्बाद होते हुए नहीं देखा है? या किसी अधिक प्रतिभावान चरित्र अभिनेता को चुपचाप अपना कार्य करते हुए लंबी पारी खेलते हुए नहीं देखा है?
प्रशंसा की अपेक्षा न करते हुए अपने कार्य को चुपचाप करते जाना ही विद्वानों का गुण है। किसी ने हमें सराहा तो उसे पूरी विनम्रता के साथ ग्रहण करें और दूसरे ही क्षण उससे यों विलग हो जाएं जैसे हरसिंगार अपने पुष्प छोड़ देता है। उसने पुष्प खिलाए, सुगंध बांटी, अब उन पुष्पों से कैसा मोह? उनके लिए कैसी प्रशंसा की आस? प्रसिद्ध अमेरिकी फुटबाल कोच और खिलाड़ी जान वुडेन ने एक बहुत सुंदर बात कही है- ‘प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त है, इसलिए विनम्र रहिए। प्रसिद्धि मनुष्य प्रदत्त है, इसलिए आभारी होना सीखिए। दंभ स्वयं प्रदत्त है, इसलिए इसका ध्यान रखिए।’
हमने मन से कार्य किया, परिश्रम से साधा तो प्रशंसा की चाह ही क्यों? और प्रशंसा मिल गई तो ठीक, उससे आत्ममुग्ध होने की क्या आवश्यकता? पूरी लगन और एकाग्रता के साथ किया गया कार्य कभी भी निष्प्रभावी नहीं होता। शत्रु भी हमारी सफलता के आगे एक न एक दिन नतमस्तक हो जाते हैं। इसलिए प्रशंसा की चाह या आत्मप्रशंसा से ऊपर उठकर मात्र अपने लक्ष्य को साधते रहना चाहिए।
