हाल ही में राजग सरकार ने इंटरनेट पर अश्लीलता को काबू में करने के लिए गुपचुप तरीके से इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को आठ सौ सत्तावन वेबसाइटों की सूची दी थी। पोर्न के नाम पर दी गई इस सूची में अधिकतर हास्य वेबसाइटें, लोकप्रिय वीडियो आधारित, व्यंग्यात्मक खेल और जीवनशैली से संबंधित ब्लॉग भी शामिल थे, जिनका पोर्न से कोई लेना-देना नहीं था। दरअसल, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की आड़ में उन वेबसाइटों पर भी हमला बोला जो जाने-अनजाने सरकार के एजेंडे के खिलाफ थीं। यों ऐसा पहली बार नहीं हुआ।

यूपीए सरकार ने भी इसी तरह इंटरनेट पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की थी। सन 2011 में गूगल की छमाही ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट में साफतौर पर चर्चा थी कि छह महीनों में भारत से तीन सौ अट्ठावन शिकायतें गूगल को भेजी गर्इं। उस रिपोर्ट के मुताबिक जो सामग्री उसे स्थानीय कानूनों के खिलाफ लगती है या फिर जिससे सामुदायिक नफरत की बू आती है, उसे वह तत्काल हटाने को तैयार हो जाता है। पर किसी के महज एतराज से या भावनाओं को ठेस लगने के आधार पर सामग्री नहीं हटाई जा सकती। गूगल ने अपनी छमाही ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट में जिन तीन सौ अट्ठावन शिकायतों का जिक्र किया था, उनमें से महज तीन पोर्नोग्राफी से और आठ नफरत फैलाने वाली अभिव्यक्ति से जुड़ी थीं। जबकि दो सौ पचपन शिकायतों का वास्ता सरकार की आलोचना से था। यानी यह कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, वह अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाती। ताकत और धौंस के बलबूते ही सही, वह आलोचना के स्वर दबा देना चाहती है।

अब सवाल उठता है कि सरकार अश्लीलता फैलाने के आरोप वाली जिस मुख्य दलील के आधार पर इतने बड़े पैमाने पर वेबसाइटों पर पाबंदी लगाने की कोशिश में है, उसका वास्तविक परिप्रेक्ष्य क्या है! शब्दकोशों के मुताबिक अश्लील शब्द का मतलब भद्दा, ग्राम्य, गंदा, घृणा या अमंगल की व्यंजना करने वाला होता है। पर जब भी अश्लीलता पर बहस होती है, हमारी आंखें आमतौर पर महिलाओं के कम कपड़े और उनकी देह की सीमा पर जाकर ठहर जाती हैं। सामाजिक नजरिए से देखें तो एक बात समझ में आती है कि अपने कमरे में बिना कपड़े के सोए पुरुष या स्त्री में किसी तरह की अश्लीलता नहीं है। मेरे खयाल से यहां अश्लील हैं उस कमरे में किसी छेद से झांकने वाली आंखें।

आखिर समाज का हर वह शख्स जिसके पास तरक्कीपसंद समझ है, राधे मां, आसाराम या तरुण तेजपाल जैसे लोगों के खिलाफ खड़ा नजर क्यों आता है? क्यों उनकी हरकतें उसे अश्लील लगती हैं? बात बेहद साफ है। ये तीनों और ऐसे सारे लोग दरअसल खुद को दिखाते कुछ और हैं, होते कुछ और हैं। ये भरोसे के लायक भले न हों, पर छद्म भरोसे का ऐसा मकड़जाल बुनते हैं, जिनके भीतर धोखे का खेल आसानी से चलता रहता है। और जब कभी इस छद्म भरोसे का भांडा फूटता है तो फिर ये किसी न किसी कालकोठरी में होते हैं।

हाल के दशकों में ठीक ऐसा ही छद्म भरोसा सरकारों ने भी बनाया है। यूपीए सरकार का सीबीएसई की ग्यारहवीं की राजनीतिशास्त्र की पुस्तक को प्रतिबंधित करने का मामला याद करें। दलित सांसदों के विरोध के सामने शहीद होने के अंदाज में उसने शंकर के कार्टून के साथ छपी राजनीतिशास्त्र की पुस्तक पर पाबंदी महज इसलिए लगा दी थी कि उस पुस्तक के ज्यादातर कार्टून कांग्रेस और नेहरू पर चोट करते थे। इसी तरह, अब राजग सरकार धर्म, संस्कृति, सभ्यता, समाज, शुचिता और आदर्श के नाम पर जिस तरह चीजों को प्रतिबंधित करने की कोशिश कर रही है, वह किसी भी जिंदा समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

यह सरकार परंपरावादी है, इसीलिए समाज सुधार के नाम पर पोर्न वेबसाइट प्रतिबंधित करने की बात सोचती है। दूसरी ओर, कई लोग हैं जो खुद को परंपराभंजक साबित करने के लिए इन वेबसाइटों के प्रतिबंधित होने के खिलाफ हैं।

दरअसल, पोर्न साइट के समर्थन में जो लोग खड़े हैं, वे जाने-अनजाने में बाजारवाद का शिकार हो रहे हैं। यह बाजारवाद किस तरह चीजों पर अपना शिकंजा कसता है, यह किसी से छिपा नहीं है। अगर थोड़ा गहरे उतरें तब पता चलता है कि पोर्न व्यवसाय का आर्थिक ढांचा जो हो, यह महिलाओं के खिलाफ एक शोषणकारी नजरिए और व्यवस्था का भी पोषण करता है। इस नजरिए से भी सरकार को विचार करना होगा और तभी कोई रास्ता सामने आएगा। एक सुचिंतित और बराबरी पर आधारित समाज व्यवस्था में न पोर्न पर प्रतिबंध लगाने की जरूरत पड़ेगी, न इससे समाज बिगड़ेगा, न बाजार महिलाओं के विरुद्ध इस कारोबार से अकूत मुनाफा कमाएगा।

अनुराग अन्वेषी

 

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