भावना मासीवाल
मौजूदा दौर में हमारे देश के अधिकतर युवा आंदोलन और धरनों में बैठे देखे जा रहे हैं। धरने और जुलूसों का पक्ष कोई भी हो सकता है, लेकिन हमारे आसपास के बहुत सारे लोग उन्हें धरना करने और खासतौर पर उनके व्यवस्था के खिलाफ बोलने पर उन पर नाराज भी खूब हो रहे हैं। मगर मेरा मानना है कि इसमें गलती दोनों ही पक्षों की नहीं है।
हमारे देश में सरकारी तंत्र की व्यवस्था ही ऐसी हो गई है कि किसी मसले पर बिना विरोध आंदोलन शुरू किए समस्या के समाधान पर बात ही नहीं होती है। जबकि समस्या की पहचान और उसका समाधान सरकार और उसके संबंधित महकमों की अपनी जिम्मेदारी होनी चाहिए।
आज हमारे देश में रोजगार एक ज्वलंत प्रश्न है। युवाओं का देश कहने से अधिक आज के समय में युवाओं द्वारा इसे बेरोजगारों का देश कहा जा रहा है, क्योंकि सबसे अधिक युवा इस बेरोजगारी से प्रताड़ित हैं। बल्कि जरा स्पष्ट लहजे में कहा जाए तो बेरोजगारी से भी अधिक प्रताड़ित वे इस व्यवस्था या तंत्र की प्रक्रिया और प्रणाली से हैं, जहां पंद्रह से बीस सालों तक नौकरियां होने पर भी कहीं अस्थायी तो कहीं दैनिक मानदेय के तौर पर ही कार्य कराया जा रहा है और आज भी यही स्थितियां बरकरार हैं।
इस कारण हर आने वाली पीढ़ी पिछली बेरोजगार पीढ़ी की स्थिति से आहत होकर अधिक आक्रामक और प्रतिक्रियावादी हो गई है। यही आक्रामकता और प्रतिक्रियावादी व्यवहार मौजूदा समय के युवाओं के विरोध में देखने को मिलता है जो लंबे समय से चली आ रही व्यवस्था तंत्र की खामियों का परिणाम है। नौकरी के लिए आवेदन आने से लेकर नियुक्ति तक की प्रक्रिया में पांच साल से भी अधिक का समय लग जाता है। चयन की ये प्रक्रियाएं पंचवर्षीय योजनाओं की तरह बन गई हैं।
आमतौर पर हर अगले चुनाव की घोषणा के साथ नौकरी की विज्ञप्ति आती है, बेरोजगारों को लुभाया जाता है। चुनाव पूरा होने पर वही विज्ञप्ति ठंडे बस्ते में चली जाती है। फिर जब अगले चुनाव का समय नजदीक आने लगता है तो एकाएक परीक्षाएं होने लगती हैं। परीक्षाएं किसी तरह हो भी जाएं, फिर परिणाम का एक लंबा इंतजार।
उसी में फिर चुनाव और मतदाताओं को ध्यान में रख कर परिणाम भी आ जाता है। फिर एक लंबा इंतजार नियुक्ति पत्र का और इस तरह सरकारी नौकरी अपनी पंचवर्षीय योजना के पांच साल पूरा कर लेती है और बेरोजगार आस लगाए रह जाता है। वहीं इन पांच सालों में व्यवस्था परिवर्तन के बाद सरकार तक बदल जाती है और नई सरकार और व्यवस्था तंत्र फिर से आगामी पांच वर्षों की लंबी फेहरिस्त लेकर जनता के सामने हाजिर हो जाता है।
इन पांच वर्षों में जो बिल्कुल नहीं बदलता, वह है बेरोजगार, जो फिर से तैयारी में जुट जाता है, क्योंकि जानता है कि पांच वर्षों तक नहीं आए परिणाम का अगली सत्ता में कोई महत्त्व नहीं रह जाएगा। क्या पता विज्ञप्ति ही खारिज कर दिया जाए, क्योंकि यह सरकारी तंत्र है… यहां कुछ भी संभव है।
कभी-कभी सोचती हूं कि जो सरकारी नौकरियां पंचवर्षीय योजना के तहत लाई जाती हैं, क्यों नहीं उन्हें चुनाव की प्रक्रिया और परिणाम की तरह बनाया जाता है! जितनी शीघ्रता से चुनाव के नतीजे घोषित होते हैं और कार्यभार विजेता प्रतिनिधि को सौंपा जाता है, उसी तरह क्यों नहीं नौकरियों के परिणाम और नियुक्ति की प्रक्रिया को पूरा किया जाता है?
यह तो हुई उन नौकरियों की बात जो किसी न किसी लाभ और वोट की राजनीति में निकाल दिए गए और अभी तक अपनी पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। अब बात उन नौकरियों और युवाओं की जो दस साल से भी अधिक समय से स्थायी नियुक्ति का इंतजार कर रहे हैं। बल्कि कुछ तो अस्थायी पद पर होकर ही रिटायर भी हो गए।
कितने युवा आज भी दिहाड़ी के मजदूर के रूप में इस व्यवस्था में काम कर रहे हैं, जिन्हें हर एक से दो महीने बाद फिर नई जगह तलाशनी पड़ती है, क्योंकि वहां भी स्थायित्व नहीं है। कितने ऐसे युवा है, जिन्हें नौकरी नहीं मिली या चल रही नौकरी चली गई, इसलिए विकल्पहीन होकर वे चोरी या छीना-झपटी जैसे अपराधों में लिप्त हो गए।
इसके तमाम उदाहरण खबरों में और हमारे आसपास देखने को मिलते हैं, जहां अच्छी शिक्षा ग्रहण किया युवा अराजक और गलत कार्य में लिप्त देखा जाता है। यह देश युवाओं का है जो वर्तमान समय में आशंकाओं से घिरा है। ये आशंकाएं अगर उसे गलत रास्तों की ओर ले जाती है तो इसका दोष हमारी व्यवस्था का है।
यहां आप यह नहीं सोचने लगें कि यह किसी एक व्यवस्था की उपज है। अगर आप यह सोचते हैं तो गलत है। दरअसल जितनी भी व्यवस्थाएं आर्इं, ये हालात उन सबकी मिलीभगत का नतीजा हैं। इसीलिए पच्चीस से तीस साल तक अस्थायी कार्य करने वाले आज भी हमारे बीच मौजूद हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि युवाओं की ऊर्जा को सही दिशा और सकारात्मक प्रयोग में लगाया जाए। तभी हम एक स्वस्थ समाज और राष्ट्र बना सकेंगे।
