मैं अपने विचारों की दुनिया में कहीं गुम, न जाने विचारों के भंवर में फंसी तह-दर-तह द्वंद्व से निकल रही हूं। अचानक मुझे खयाल आया कि मैं अपनी मां से कितनी अलग हूं। सच तो यह कि यह विचार मेरे उस विश्लेषण से जन्मा जब मैं कॉलेज से घर लौट रही थी। जिस बस से आ रही थी, वह रोज की तरह भीड़ से भरी हुई नहीं थी। इसका एक फायदा यह हुआ कि मुझे सीट मिल गई। हमेशा से ही बस की खिड़की के शीशे से सटी सीट पर बैठना मुझे बहुत पसंद है। बिल्कुल वैसे ही जैसे एक छोटे बच्चे को उस जगह बैठना लगता है, क्योंकि वह अपनी नन्ही आंखों में विशाल विस्तृत फैली और बस से बाहर देखने पर दौड़ती दुनिया को अपनी मद्धिम आंखों में बसा लेना चाहता है।
ठीक वैसे ही मैं अपनी बेचैन आखों से उस दौड़ते जगत को देख रही थी। इस दौड़ में कई ऐसे दृश्य सामने आए जो मेरे लिए विचार का विषय बन गए, जैसे मांस-मछलियों से सराबोर दुकानें, कूड़े का ढेर। उसके आसपास खेलते बच्चे और यमुना के पुल से सटी पटरी पर ठंड में सब्जी बेचते कुछ लोग और बच्चे। यह वर्ग, जो भारत की एक बड़ी आबादी का हिस्सा है, कड़ाके की ठंड में सुबह से शाम तक खुले और कूड़े से सराबोर माहौल में रहता है। उन्हें देख कर मेरे भीतर एक लिजलिजा-सा भाव आता है। जिन परिस्थितियों में ये लोग जीवन-यापन करते हैं, वही मेरे लिए लिजलिजा भाव है! और इस भेद को लेकर मैं एक ऐसी गहरी मंत्रणा में लग जाती हूं, जिसमें मन की सतह पर प्रगतिवादी दौर में लिखी कविता की पंक्तियां तैरने लगती हैंं- ‘ओ मजदूर… ओ मजदूर! तू सब चीजों का कर्ता तू सब चीजों से दूर!’ खयाल आगे बढ़ता है और मन में प्रश्न उठता है कि हिंदुस्तान की बड़ी उत्पादनकारी आबादी ही अपने अधिकारों से वंचित क्यों है!
इस प्रश्न का एक जवाब हीगेल के विश्लेषण में मिलता है, जहां वे मजदूर और संपन्न वर्ग की चेतना के द्वंद्वात्मक संबंधों का विश्लेषण करते हुए कहते हैं- ‘एक स्वाधीन है, उसकी सारभूत प्रकृति स्वार्थी है। दूसरा पराधीन है, उसके जीवन का सार यह है कि जीवन या अस्तित्व दूसरों के लिए है। पहला मालिक है, दूसरा दास है। जब तक यह चेतना दोनों में रहेगी, ये भेद भी बने रहेंगे।’ अचानक मेरी खुद से यह मंत्रणा बस में खड़ी कुछ लड़कियों के हंसी-ठहाके को सुन कर टूट जाती है तभी मुझे खयाल आता है कि मैं अपने परिवेश को लेकर शायद सचेत हूं, उन लड़कियों के मुकाबले जो बस में मुझसे दूर खड़ी हैं और उन लोगों के मुकाबले, जो मुझसे दूर खड़े हैं।
उस समय अपने दिमाग का सचेतन, संवेदनशीलता और अपनी अस्मिता के बोधन को लेकर मन में एक गर्व की भावना आ गई। शुक्र है! मैं सांस लेकर जिस तरह अपने शरीर को जीवित रखती हूं, ठीक वैसे ही विचारों के मंथन से अपने मन और दिमाग को भी जीवित रखती हूं। इस गर्व-बोध के भाव से मैं झण भर इतरा भी न पाई थी कि तभी दूसरा भाव मुझे झकझोर गया। वह भाव था कि मैं आज जो हूं, क्या वह हो पाती, अगर मां ने मुझे स्त्री के लिए निर्धारित कुछ क्षेत्रों से दूर न रखा होता! जैसे आज भी जब मां खत्म होते राशन और सिलेंडर (गैस) को लेकर चिंतित होती है तो मैं कहती हूं- ‘ओहो! मां तुम भी न…! इतनी छोटी-छोटी बातों लेकर इतना सोचती हो! जबकि दुनिया में और भी कितना कुछ है सोचने के लिए।’ ऐसा कह कर मैं मां को अपनी गंभीरता से परिचित करा कर खुद को उनसे एक अलग बौद्धिक पद पर विद्यमान कर लेती हूं। जबकि थोड़ा ठहर कर सोचा जाए कि अगर मां ने हमारी इन छोटी-छोटी जरूरतों के लिए चिंता न की होती और हमें इससे दूर न रखा होता तो मैं इन बड़ी गंभीर और बौद्धिक बातों को समझने के काबिल हो पाती!
दूसरा विचार यह कि मां कितना कुछ करती है। हमारे लिए लड़ती है, झगड़ती है। अपना सब कुछ हममें देखती है और हमारे इर्द-गिर्द ही अपनी दुनिया गढ़ लेती है। सबसे ज्यादा अपने बच्चे को प्रेम करती है। उसके करीब रहना चाहती है। लेकिन वक्त आने पर अपने बच्चे के विकास और भविष्य की खातिर उससे दूर भी रहना स्वीकार करती है। बच्चा, जो जन्म के बाद से मां में ही अपने संसार की छवि देखता है और उसे समझता है। बल्कि जन्म के बाद एक बालक का संसार उसकी मां ही होती है। फिर विकसित होने के बाद मां से अलगाव क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि वह हमें संभालते-संभालते अपनी जमीन पर ही रह गई और हम उसके प्रेम के सहारे उससे बहुत दूर कहीं आगे निकल आए हैं?