हाल ही में जब यह खबर सुनी कि एचएमटी के समय की टिक-टिक अब बंद हो जाएगी, तो अचानक सन्न रह गया। एचएमटी यानी हिंदुस्तान मशीन टूल्स की घड़ियां देश की शान थीं, धड़कन थीं। आज जब उसे बंद करने की बात हो रही है, तो ऐसा लग रहा है कि वक्त ही रुक गया है। जब कोई कंपनी बंद होती है तो ऐसा नहीं है कि केवल एक कंपनी बंद होती है। बंद हो जाती है उससे जुड़े हजारों लोगों के जिंदगी की रफ्तार…! टूट जाती है उन लोगों की उम्मीदें, उनकी सांसें, जो इनके भरोसे ही चलती थी। इस घड़ी का एक विज्ञापन ‘उम्मीदों की घड़ी’, जो नब्बे के दशक में खूब प्रसारित किया जाता था, आज एकदम बेजान लग रहा है।
किसी कारखाने के बंद होने का दंश हमने महसूस किया है। आज जब इस देश की यह सदाबहार सार्वजनिक फैक्ट्री बंद करने की बात हो रही है, तो कभी बिहार का बरौनी खाद कारखाना बंद होने का पूरा मंजर मन-मस्तिष्क में घूमने लगा है। क्या गुलजार रहता था वहां! चारों ओर खुशियां छलकती थीं। कारखाने के कर्मचारियों से लेकर इससे जुड़े हजारों लोगों की जीविका इसी से चलती थी। लेकिन आज वहां चारों तरफ वीरानी और सन्नाटा पसरा रहता है। वही स्थिति अब एचएमटी से जुड़े लोगों के सामने भी आने वाली है। यह सोच कर ही सिहरन होती है।
इस तरह देश के सार्वजनिक उपक्रम बंद होने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं! इस प्रश्न को टटोलना जरूरी है। इस संदर्भ में एक तजुर्बा साझा करना चाहता हूं। बिहार में राज्य सरकार की गाड़ियां एक समय में यातायात के मुख्य साधन थे। समय के साथ साथ कुछ निजी वाहन भी सड़क पर उतरे। लेकिन लोगों का भरोसा सरकारी वाहनों पर अधिक था। निजी वाहन वाले सरकारी कर्मचारियों को प्रलोभन देने लगे और धीरे-धीरे सरकारी वाहन के चालक और कर्मचारी मनमानी करने लगे। दूसरी ओर सरकार की तरफ से समय पर रखरखाव आदि पर होने वाले खर्च कम या देरी से मिलने लगे। नतीजा यह हुआ कि ये वाहन खटारा में तब्दील होते गए और सरकार के लिए इससे आमदनी भी घटते-घटते यह घाटे का सौदा बन गया। जबकि निजी वाहन मालिकों के यहां वाहनों की कतारें लंबी होने लगीं। कुछ इसी तरह दूरसंचार के क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा है। आमतौर पर देखा जाता है कि सरकारी संस्था में काम करने वाले लोग आलसी बने रहते हैं और ‘बने रहो पगला, काम करेगा अगला’ के ढर्रे पर काम को जैसे-तैसे आगे बढ़ाते रहते हैं। हालांकि कई कर्मचारी ऐसे भी हैं, जो अपनी जवाबदेही को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। इसमें कोई शक नहीं है।
अक्सर लोगों को बातें करते हुए सुनता हूं कि कहीं एक सरकारी नौकरी मिल जाती तो अपने भी दिन मजे से बीतते। लेकिन उन्हीं लोगों से जब यह पूछा जाता है कि आप अपने बच्चों को कहां पढ़ाते हैं, तो वे शान से किसी कॉन्वेंट स्कूल का नाम लेते हैं। यह नजरिया है हमारे समाज का। ऐसे में क्या आश्चर्य कि कोई सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बंद हो जाए! या फिर किसी को लीज पर दे दी जाए। आज एचएमटी के साथ भी वही हुआ।
याद है वह जमाना, जब कोई दूल्हा रूठ जाता था ससुराल में कि उसे एचएमटी की घड़ियां नहीं मिली। एक जमाना वह भी आया कि दूल्हे के साथ दुल्हन की कलाई पर भी एक ही तरह की घड़ियां बांधी जाती थीं। कोई दसवीं कक्षा का छात्र अपने अभिभावकों से परीक्षा में सफल होने पर एचएमटी की घड़ियां ही मांगता था। लेकिन वक्त बदलने के साथ ही शायद आखिरी तौर पर थम जाएगी एचएमटी की टिक-टिक। या यों कहें कि रोक दी जाएगी वक्त की उस आवाज को, जो सुबह लागों को जगाती थी अपने साथ। लोग दिन भर काम करते और फिर शाम को पूरे परिवार के साथ उसी आवाज के सहारे ठिठोलियां करते थे।
यों तो एचएमटी का बुरा समय सन 2000 से ही शुरू हो गया था। लेकिन सरकारों के अतुल्य भारत से लेकर अच्छे दिन के दावे को बावजूद एचएमटी और उसके कर्मचारियों के दिन नहीं सुधर सके। कर्मचारियों को ऐच्छिक रिटायरमेंट लेने का फरमान जारी कर दिया गया। कंपनी के कामगार बंदी की आहट सुनने के बाद से लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अब इसकी रही-सही उम्मीदें भी समाप्त हो चुकी हैं कि फिर से एचएमटी की टिक-टिक हमें वक्त की याद दिलाएगी और पाबंद बनाएगी।

