एक कहावत है- ‘भैंस को चाहिए कांकड़े, सरकार को चाहिए आंकड़े।’ इस गणना विकास के दौर में तो यह कहावत और भी प्रासंगिक होती दिखाई देती हैं। आंकड़ों की जरूरत किए गए जमीनी काम के संधारण के रूप में हुई थी, लेकिन अब कई बार काम से ज्यादा आंकड़े दिखाई देते हैं और जमीन पर आंकड़ों के या तो कुछ अंश दिखाई देते हैं या फिर पूरी तरह से ही गायब।

हाल ही में एक मित्र को एक व्यक्ति ने अपने वाट्सऐप समूह में जोड़ते हुए बताया कि उनकी संस्था पर्यावरण के क्षेत्र में कार्य कर रही है और पर्यावरण संरक्षण के लिए दस करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य रखा गया है। बातचीत के दौरान वे आंकड़ों के संधारण को लेकर बहुत प्रतिबद्ध दिखाई दे रहे थे। लेकिन ये दस करोड़ पौधे कहां लगने हैं, कैसे लगने हैं, इनके लिए वित्तीय व्यवस्था कैसे होगी, क्या यह काम जनसहयोग से किया जाएगा, इन पौधों की देखरेख कौन करेगा आदि सवाल मित्र के मन में ही रह गए।

इस भागदौड़ के समय में सुनना किसे है, बस कहना ही कहना है! हालांकि मित्र के बारे में सब जानते थे कि व्यक्तिगत रूप से सार्वजनिक स्थानों पर पौधा लगाना उनके लिए आम बात है। अभी तक उन्होंने हजारों पौधे सार्वजनिक जगहों पर लगाया है। उनका लेखा-जोखा रखने के साथ-साथ लगाए गए पौधों का खयाल भी रखा जाता है। यह काम उनके बहुत दिल के करीब है।

इसलिए इस दौरान आने वाली हर मुश्किल उन्हें कभी मुश्किल नहीं लगती, बल्कि एक चुनौती लगती है और फिर उसे पार पाने पर उन्हें एक गहरा संतोष देती है। जब संस्था के प्रतिनिधि को पता चला तो उन्होंने मित्र को इस काम के लिए अपनी संस्था से प्रमाणपत्र दिलवाने का भी वादा किया। एक प्रमाणपत्र के एवज वे मित्र द्वारा लगाए पौधों की गिनती को अपने आंकड़ों में शामिल करना चाहते थे।

मात्र आंकड़ों का खेल खेलने वाले क्या यह जानते हैं कि कोई व्यक्ति किसी काम को कितने मन से करता है? उसका श्रम, अपने काम से लगाव, काम को आगे बढ़ते देखने का उल्लास, उसके संतोष के सामने कोई भी प्रमाणपत्र कितना बौना होता है! जिस काम के फल के नष्ट होने की जितनी संभावना अधिक होती है, उसकी आंकड़ों में फलीभूत होने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है, क्योंकि बहुत सारे कामों में काम का परिणाम शत-प्रतिशत तो नहीं मिलता!

एक आकलन के मुताबिक, सरकारी पौधरोपण की पोल खोलने के लिए एक राजकीय चिकित्सा कालेज का परिसर पर्याप्त है। वर्ष 2016 में वहां एक घंटे में पांच हजार पौधे रोपे गए थे। जोरशोर से इसका प्रचार किया गया था। इसे ‘गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड’ में दर्ज कर लिया गया। इसके बाद इसकी किसी ने सुध नहीं ली कि वहां रोपे गए पौधों का क्या हुआ। अब यहां आंकड़ों के बारे में क्या कहा जा सकता है?

मौत या स्वास्थ्य संबंधी आंकड़े जमीनी स्तर पर किसी राज्य या देश की बदहाली बताते हैं। इसलिए अधिकांश आंकड़े हमेशा वास्तविक स्थितियों से कम बताए जाते हैं। वहीं उपलब्धियों के आंकड़े बढ़ा कर बताना किसी भी संगठन, राज्य या देश की सफलता का परिचायक माना जाता है। इसलिए उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर बताने के प्रयास भी कोई कम नहीं किए जाते हैं।

मौत के आंकड़े कम बताना जहां सरकार की असफलता को बताता है, वहीं मौत के गर्त में जाने वाले के परिजनों को उचित मुआवजा देने और भविष्य में दुरुस्त सेवाओं की भी मांग करता है। हाल ही में एक राज्य में मात्र आठ सौ मीटर में पचास से अधिक कुएं कागजों में खोद दिए जाने की खबर आई थी। ऐसे आंकड़े कितने हास्यास्पद लगते हैं! ऐसे ही न जाने कितने आंकड़े हर दिन हमारे सामने आते रहते हैं, जिनकी कई बार तो किसी प्रकार की तहकीकात तक करने की जरूरत नहीं लगती।

जब किसी काम के आधारभूत आंकड़े सही नहीं होते तो उनके आधार पर किए जाने वाले कामों की चुनौतियां, काम की रूपरेखा, उसका बजट, क्रियान्वयन और परिणाम सभी पर असर पड़ता है। ऐसे में परिणामों का अनुमान लगाया जा सकता है। सांख्यिकी सत्य का आकलन करती है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि हम डेटा से जो आंकड़े प्राप्त कर रहे हैं, वे यथासंभव सत्य के करीब हैं।

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि डेटा मात्रा के साथ-साथ अत्यंत गुणवत्ता का हो। ऐसे कई तरीके हैं, जिनमें त्रुटियां या पूर्वाग्रह अनुसंधान में उपयोग किए गए डेटा का एक अंतर्निहित हिस्सा हो सकते हैं। आंकड़े बहुत कुछ होते हैं, लेकिन वे जमीनी काम से ही उपजे हैं। जो काम जमीन पर सही नहीं, उसके आंकड़े कैसे सही हो सकते हैं? जिनका काम जमीन पर नहीं, लैपटाप की स्क्रीन पर पर उगता है, उनके पैरों के नीचे जमीन कहां होगी? आंकड़े जितना जमीन से छन कर आंकड़ों का हिस्सा बनेंगे, वे उतना ही शोधित होंगे, विश्वसनीय होंगे। मात्र उपलब्धियों, लक्ष्य और पुस्कार प्राप्त करना किसी भी काम की अहमियत को तो घटाता ही है, आंकड़ों को भी अविश्वसनीय बनाता है।