लेखन एक कला है, जिसका अपना एक सकून है और एक अस्तित्व। लेखक की गैरमौजूदगी में भी लेखन यथा-तथा रहता है। उसके होने का अहसास करता हुआ। कुछ वैसे, जैसे कुछ देर के लिए पीछे रह गया इत्र। रोज दिमाग में कुछ खयाल कौंधते हैं। कुछ आधे-अधूरे दम तोड़ देते हैं, कुछ को लिखने बैठती हूं तो कभी शब्दों का अभाव उन्हें शून्य कर देता है। ढेरों आधे लिखे वाक्यांश, कुछ यों ही पड़े नौसिखिए भाव! ऐसा लगता है विचारों को मुक्ति नहीं मिल पा रही है। बस कलम की नोंक पर आकर कहीं अटक-से जाते हैं। कुछ अनुभव मानो रेत की तरह फिसलते जाते हैं।

शौक के चलते अक्सर पढ़ती हूं। कभी किताबें, कोई अखबार, कुछ लेख, कोई ब्लॉग! यकीन मानिए, कभी यों ही पढ़ते हुए लगता है कि ‘हां, आज सही लफ्ज मिल गया। मन में कई दिनों से अटकी उस अभिव्यक्ति को!’ पता नहीं कभी आपने महसूस किया है या नहीं! अगर सही अल्फाज या वाक्यांश नहीं मिले तो भाव अधूरा, कुंठित-सा सांस के लिए तड़पता हुआ लगता है, जिस तरह कोई अस्थमा का मरीज हांफ रहा हो, सामने खड़े व्यक्ति की आंखें टटोलता हुआ कि वह उसे समझ पाए। जैसे उन दोनों के बीच एक लंबा अंतराल आ गया हो, जिसे भरे जाने की उम्मीद हो। मैंने अक्सर खुद को असमर्थ पाया है इस लेखन में। बात करते हुए कभी भी पूरी तरह हिंदी या अंग्रेजी तक खुद को सीमित नहीं रख पाती। इस छोर से कभी उस छोर, शब्दों को तलाशना एक जटिल और निराशा से भरा अनुभव है। अमृता प्रीतम की कहानियां पढ़ते हुए यह अहसास और विषम रूप से घर कर लेता है। उनकी हर कहानी को पढ़ने के बाद, चाहे वह ‘शाह की कंजरी’ हो या ‘जंगली बूटी’, कुछ देर के लिए धक-सी बैठ जाती हूं, बिल्कुल सुन्न! मानो उस दुनिया से खुद को बटोर कर लाने की हिम्मत जुटा रही हूं। लेखक का यही तो कौशल है कि पाठक को बांध पाए, बिना यह अहसास कराए।

अनेक बार खयाल आता है कि यह कला क्यों सिर्फ कुछ लोग जानते हैं! सही लफ्ज का समावेश, भाषा पर सटीक पकड़! एक बार समाजशास्त्री प्रोफेसर कृष्ण कुमार की कक्षा में सभी ‘माहौल’ का अंग्रेजी में सटीक अभिप्राय खोजने लगे। स्नातकोत्तर के सभी छात्र नाकाम रहे, तब कृष्ण कुमार ने बताया था ‘मील्यॅउ’। अक्सर पढ़ा था यह शब्द, लेकिन उसी दिन ‘मील्यॅउ’ से दोस्ती हुई थी। आज तक अक्सर बातों ही बातों में इस नए बने दोस्त को याद कर लेती हूं। जिनकी गहरी दोस्ती शब्द-कोश से हो गई है, वे खुद को कितना समर्थ महसूस करते होंगे न…!

सोच-विचार करते हुए, मन में विचार कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं। उनका कोई ओर-छोर नहीं रहता। क्या यह सिर्फ एक व्यक्ति विशेष की शिकस्त है कि सालों-साल पढ़ने के बावजूद, वह इस क्षमता को नहीं हासिल कर पाए? क्या यह व्यवस्था की विफलता है या एक जटिल प्रक्रिया का प्रबुद्ध प्रयास? सामाजिक प्रजनन की प्रक्रिया शायद इसी तरह काम करती है। जैसे, एक उद्योग का खाका बने रहने के लिए जरूरी है कि सीमित संख्या में मालिक हो और बहुतायत में श्रमजीवी, जिनसे सिर्फ आदेश को पूरा करने की उम्मीद की जाती है, बिना दिमाग लगाए। उसी प्रकार जब खुद के विचारों को पूरी तरह रख नहीं पाएंगे तो शायद दूसरों के विचारों को पढ़ कर, समझ कर ही काम चलाना पड़ेगा। इससे एक संतुलन बना रहता है, सीमित विचारक और बहुतायत समझने वालों की। इस प्रक्रिया का अभिन्न भाग है जिसे प्रसिद्ध समाजशास्त्री बोर्डियु कहते हैं ‘मिसरिकग्निशन’।

हमें ऐसा लगता है कि यह हमारी खुद की विफलता है, न कि पूरी सामाजिक रचना की। हम खुद यह प्रश्न नहीं करते कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने का मतलब करीब चौदह-पंद्रह साल, जिसमें हर साल हम दो विषय अमूमन भाषा के पढ़ते आए हैं, फिर भी जब अभिव्यक्ति की बात आती है तो हम खुद को असहाय महसूस करने हैं और इसे पूरी तरह सिर्फ अपनी विफलता मानते हैं। बहुत तर्कसंगत लगता है ‘कॉपी-पेस्ट’ करना। जरूरी होता है, कितना अचूक रटा गया है और उसी के चलते साल दर साल अंक हासिल हो जाते हैं।

कई बार चेतन मन बड़ा उदासीन महसूस करता है कि रोजमर्रा की जिंदगी में बस कुछ ही लोग बचे हैं जो आज भी खत लिखते हैं। यों ही, उड़ते हुए मन में खयाल आ गया कि ‘खत’ एक बिल्कुल अलग अहसास होता है, जब निजी तौर पर किसी को भेजा या प्राप्त किया जाता है। एक निजी खत हमेशा लिखे हुए से कुछ ज्यादा होता है। हर घसीटा हुआ लफ्ज, एक छोटा-सा कोई चित्र जो लिखने वाले ने किसी विचार में खोकर बस यों ही बना दिया और किया हुआ संबोधन। विचार और मन के भाव लिखते हुए कभी यों ही सभी आवरण को समेत कर रख देना, एक बेहद विशुद्ध अहसास है। शायद थोड़ा और इस्तेमाल हो तो वैचारिक तृप्ति थोड़ी और महसूस हो।