आजकल घरों की बत्तियां रातों में देर तक जलती हुई दिखाई देती हैं। जलती बत्तियां बताती हैं कि बच्चे पढ़ रहे हैं। किसी का कोर्स पूरा नहीं हुआ है, कोई अपने याद किए हुए पाठ को दोहरा रहा है, कोई सवालों के जवाब के लिए गैस पेपर और कुंजियों का सहारा ले रहा है। दरअसल, इम्तिहान उनके सिर पर हैं। शायद इसीलिए पार्कों में बच्चों का शोर भी सुनाई नहीं देता। शादियों और किसी अन्य समारोह में वे डीजे यानी संगीत की तेज धुन पर देर रात तक थिरकते भी दिखाई नहीं देते। हां, मंदिरों और पूजाघरों में उनकी भीड़ बढ़ जाती है। पढ़ाई के साथ-साथ शायद भगवान को भी प्रसन्न करना जरूरी है, जिससे कि वे जहां चूक रहे हों, वहां पूजा काम आ जाए और भगवान डूबती नैया को पार लगा दे। हालांकि काम आखिर वही आता है जितना वे पढ़ और याद रख पाते हैं।
कई बार वे आते-जाते दिखाई भी देते हैं तो चिंता की ढेर सारी रेखाएं उनके चेहरे पर खिंची महसूस होती हैं। बल्कि उनके कदम भी धीरे-धीरे उठते हैं। उनकी खिलखिलाहट, हंसी, मजाक इन दिनों एक गहरी चुप्पी और उदासी में बदल जाती है। जमाना चाहे जितना बदल जाए, लेकिन इम्तिहान हमेशा अपने साथ एक अनजाना डर लेकर आते हैं। इन बच्चों के भीतर इसकी चिंता होती है कि आगे क्या होगा, रिजल्ट कैसा होगा, मगर उसके बारे में कभी पता नहीं होता।
मौसम के हिसाब से हवा के तेवर भी आजकल कितने बदल जाते हैं! हर डाल पर पत्ते इतनी तेजी से थिरकते हैं जैसे कि कोई नृत्य प्रतियोगिता हो रही हो! पत्तों के लिए भी प्रतियोगिता का शायद यह आखिरी मौका होता है, क्योंकि पतझड़ में सूख कर वे नीचे गिरते हैं, उड़ कर कहीं से कहीं चले जाते हैं या चलते-फिरते पैरों के नीचे कुचल जाते हैं। कल तक जो पेड़ों पर इठला रहे थे और शायद अपने ही सौंदर्य पर मुग्ध हो रहे थे, उनकी तरफ कोई और तो क्या, पेड़ भी नहीं देखेंगे। वे तो नई कोंपलों का स्वागत करने और उन्हें खुराक पहुंचा कर मजबूत कर रहे होंगे। इन दिनों हर पेड़, पौधा और शाखा फूलों से भरी है। वसंत का स्वागत सारे पेड़ और वनस्पतियां इसी तरह करती हैं। नए की सूरत, चमक, ऊर्जा और तेजस्विता किसी पुराने को याद नहीं रहने देती। क्या पता मनुष्यों की तरह ही जमीन पर पड़े पत्तों को भी इस बात का अफसोस होता हो कि उनके अपनों ने ही उन्हें कितनी जल्दी भुला दिया!
आजकल दूसरे पेड़ों के साथ सेमल के पेड़ लाल और नारंगी फूलों से भरे हैं। पत्ते कहीं दिखाई ही नहीं देते। इन्हें देख कर लगता है, जैसे सेमल पर पत्ते होते ही नहीं, फूल ही फूल लगते हैं। मगर इन फूलों से पेड़ों का वास्ता बहुत कम दिन का होता है। ये बहुत जल्दी और बड़ी संख्या में झर कर फर्श पर लाल-नारंगी कालीन जैसी बिछा देते हैं। इन पर लगने वाले हरे फल सूखने पर फट जाते हैं। रूई हवा में उड़ती है। हवा में उड़ती रूई जैसे सफेद मकड़े की तरह दिखती है। लोग इन फलों को इकट्ठा करके रूई निकाल कर बेचते हैं। सेमल की रूई से बना तकिया गरम माना जाता है। लोक विश्वास के अनुसार इसे ज्यादा दिन तक नहीं लगाना चाहिए।
इन दिनों हवा शायद तेज चल कर इसीलिए इतराती है कि उसे पता है कि आजकल के फूलों का जीवन तो बस थोड़ा ही बचा हुआ है। गरमी की दस्तक आते ही वे कुम्हलाने लगेंगे। मगर हवा तो हमेशा रहेगी। अभी की न ठंडी, न गरम हवा थोड़े दिनों बाद तेज लू में बदल जाएगी, जिससे सब लोग बच कर चलेंगे। हमारे जीवन में हवा के न जाने कितने रूप हैं। कितने नाम हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने तो सुंदरकांड में उनचास किस्म के पवन यानी हवा का जिक्र किया है। साधारण लोगों को तो पूर्वा और पछुआ के अलावा शायद दूसरी हवाओं के अलावा बहुत जानकारी भी न हो!
बचपन में बड़े भाई इस तरह की चलती हवा को इम्तिहान की हवा कहते थे। मैं भी पूरे जीवन इसे इसी नाम से पुकारती रही हूं। पता नहीं आज के बच्चों और खासतौर पर विद्यार्थियों के लिए इसका क्या नाम है! या फिर उन्होंने हवा के इस बदले रुख पर इम्तिहान की चिंताओं के कारण कभी ध्यान ही नहीं दिया है। क्या इस इम्तिहान की हवा के बीच दुनिया में यथार्थ के धरातल पर बहने वाली सारी हवाएं गुम हो जाती हैं? क्या हमारे लिए दुनिया के सवालों से दो-चार होने के बजाय स्कूल और क्लास में आगे बढ़ने के लिए आयोजित इम्तिहान इतने सर्वोपरि हो गए हैं?

