के. विक्रम राव

जनसत्ता 11 नवंबर, 2014: सुबह के दैनिक पलट रहा था। अट्ठाईस से तीस तो अमूमन होते हैं। ‘आज का इतिहास’ पीटीआइ की नियमित खबर होती है। उस दिन (9 नवंबर 2014) एक खास बात थी। सोवियत रूस निर्मित बर्लिन की दीवार को ढहे ठीक पच्चीस वर्ष हुए थे। मुझे कम्युनिस्ट शासित पूर्वी जर्मनी (जर्मन जनवादी गणराज्य) की बर्लिन दीवार (अगस्त 1984 एक बरसाती शाम) का दीदार याद आया। फिर फरवरी 1991 की वह सर्द सुबह भी, जहां बर्लिन दीवार थी वहां सड़क बन गई। कभी वह बर्लिन के निर्धन और संपन्न इलाकों को जोड़ती थी। मगर पहली बार देखा तो वह लोगों को तोड़ रही थी। एक ही भाषा, इतिहास और संस्कृति थी। फिर भी पच्चीस वर्ष पूर्व तक दीवार के पूरब वाले अपने को समाजवादी कहते थे और उस पार वालों को फासिस्ट। इसी के साथ अचानक वाघा सीमा चौकी की याद आई। गत वर्ष गया था। अमृतसर से करीब तीस किलोमीटर दूर। वैसी ही भावना जगी। एक ही (पंजाबी) उच्चारण, खानपान रहन-सहन भी समान, पर अब वीसा चाहिए। हालांकि आगरा के जूते के व्यापारी के पुत्र उर्दूभाषी चौहत्तर वर्षीय मामून हुसैन आज पाकिस्तान के राष्ट्रपति हैं। बर्लिन दीवार की र्इंट बजा कर जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल राजनीति में आर्इं। तब छत्तीस वर्ष की थीं। कम्युनिस्ट राज की प्रवक्ता थीं। ठीक राष्ट्रपति जोकिम गाइक की भांति जो बर्लिन दीवार को नेस्तनाबूद करने वाले पूर्वी बर्लिनवासी। दोनों आज एकीकृत जर्मनी के शीर्ष पदों पर हैं।

फिर वाघा की यात्रा ताजा हो आई। वाघा सीमा पर भारतीय लोग, जो कभी उस पार वाले पंजाब से भाग कर आए थे, आज भी यही सपना संजोते हैं कि उनका लाहौर फिर अमृतसर से बिना रोक-टोक के जुड़ जाएगा, जैसे बर्लिन का हुआ। सोलहवीं सदी में शेरशाह सूरी द्वारा कलकत्ता से काबुल तक बनाई गई जीटी सड़क (आज राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर प्रथम) के दोनों सिरे (बर्लिन की भांति) क्या मूल रूप में आ जाएंगे? कल का इतिहास बताएगा।

पच्चीस वर्ष पहले जो हुआ था, उससे न केवल सोवियत साम्राज्य का ध्वंस हुआ, बल्कि यूरोपीय कम्युनिस्ट आंदोलन भी इतिहास में सिमट गया। याद आया कि इसकी प्रक्रिया एशिया से शुरू हुई थी। चीन की राजधानी बीजिंग के थ्येन आन मन चौराहे पर आजादी के दीवाने छात्रों में जुनून था। उनके बागी तेवर से सारे कम्युनिस्ट राष्ट्र थरथरा गए। पूर्वी जर्मनी की कम्युनिस्ट सरकार ने 1989 में सोवियत रूस से मांग की कि अगर सरकार विरोधी संघर्ष चला तो रूसी सैनिकों और टैंकों की मदद भेजी जाए। सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने साफ इनकार कर दिया। मेरी नजर में गोर्बाचेव उसी दिन से युगांतकारी राजनेता बन गए। उन्होंने जबरन लाल सेना की संगीनों के बल पर जोड़े गए भिन्नतापूर्ण राष्ट्रों को मुक्त कर दिया। स्वाभाविक रूप दे दिया। जर्मनी और राजधानी बर्लिन से प्रारंभ किया। इतिहास में पढ़ा था द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत (जून 1945) पर पोटसडेम और याल्टा में मित्र राष्ट्रों ने यूरोप का नया मानचित्र खींचा था। एडोल्फ हिटलर का पराजित जर्मनी उसमें शामिल था। तब दुनिया के नवउपनिवेशवादी अमेरिका, सोवियत रूस और पुराने साम्राज्यवादी ब्रिटेन ने तय किया कि जीती गई धरती और लूटे हुए धन का बंटवारा कैसे हो! जोसेफ स्टालिन, विंस्टन चर्चिल और हैरी ट्रूमन विश्व-विधाता बने थे। चौवालीस वर्षों तक पूर्वी यूरोप के राष्ट्र गुलाम बन गए।

जर्मनी का बर्लिन चारों शक्तियों ने काट कर बांट लिया। हालत ऐसी थी कि मानो चांदनी चौक से कनाट प्लेस जाने के लिए वीजा लेना पड़े। तब एक अंगरेजी भाषी गाइड ने मुझे बताया कि दोनों का शरीर समान, मगर शासकीय विचारधारा जुदा थी। पश्चिमी फासीवाद के अतिक्रमण से समाजवादी व्यवस्था को बचाने के बहाने से सोवियत रूस ने बर्लिन के बीचोंबीच बारह फुट ऊंची और चार फुट मोटी दीवार पर मोटी पाइप लगा कर दो खेमों में बाट दिया। इसे मौत का जाल कहा जाता था, क्योंकि मुक्त जीवन के लिए सोवियत अधिकृत पूर्वी जर्मनी से पलायन करने वालों को मशीनगन से भून दिया जाता था। सीमा सुरक्षा गार्ड बड़े निर्मम थे। ठीक तीन दशक पहले (अगस्त 1984) में इसी दीवार से सटे चेक-पोस्ट चार्ली पर तैनात पूर्वी और पश्चिमी जर्मन सैनिकों से मैंने पूछा कि क्या वे एक राष्ट्र का सपना संजोते हैं? उनके चेहरे पर स्पष्ट सहमति थी, पर सरकारी ड्यूटी भी करनी थी, विभाजन बनाए रखना। यही भावना वाघा फाटक पर भी होती है। क्या अंतर है पंजाब के पश्चिम (पाकिस्तान) और पूर्वी (भारत) भागों में? बस एक मजहबी जुनूनी मुसलिम लीगी मोहम्मद अली जिन्ना की जिद थी।

बर्लिन दीवार के बारे में एक विशेषता है। इसकी पश्चिमी दिशा की तरफ चित्रकारी थी। आजादी की अभिव्यक्ति थी, छटपटाहट थी। यह ग्रफिटी (गुदाई) द्योतक थी कि मानव की स्वतंत्रता की चाहत को अधिक समय तक कुचला नहीं जा सकता। यही बात बिल क्लिंटन ने (1994) कही। वाघा फाटक के दोनों ओर ऐसी एकता की ललक भले ही पनपती हो, पर सरकारें इतनी बलशाली हैं कि उसे फलने नही देंगी, जब तक साबरमती का संत दोबारा नहीं जन्मता। आज साबरमती का एक तटवासी भारत का शासक तो है, पर उसकी विचारधारा भारत और पाकिस्तान को समांग बनाने, एकीभूत करने की पक्षधर नहीं है। कारण मजहब और आस्था की टकराहट का है। कौन हटाएगा और जोड़ेगा?

 

 

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