शरद तिवारी
बात बहुत पुरानी नहीं हुई है। कुछ समय पहले दूरदर्शन की एक अस्थायी समाचार वाचिका ने जब चीन के राष्ट्रपति का नाम गलत पढ़ दिया तो अपनी खाल बचाने के लिए अधिकारियों ने उसे फौरन बर्खास्त कर दिया। मगर किसी अधिकारी पर इसकी जिम्मेवारी नहीं आई। यहीं अगर किसी नियमित कर्मचारी से ऐसी गलती हुई होती तो उस पर शायद लीपापोती कर दी जाती और कम से कम उसे नौकरी से निकाल देने जैसी कठोर कार्रवाई नहीं होती।
यह किसी से छिपा नहीं है कि सीधा प्रसारण वाले कार्यक्रमों में भी गलतियां होती रहती हैं। खासतौर पर नाम के उच्चारण की गलतियों से टीवी या रेडियो पर बोलने वाला कोई व्यक्ति शायद ही बच पाता हो! वर्षों पहले आकाशवाणी के मूर्धन्य समाचार वाचक देवकीनंदन पांडे के सामने मैंने जाने-माने पक्षी विज्ञानी सालिम अली का नाम सलीम अली ले लिया तो वे बोले कि सही उच्चारण सालिम अली है। फिर उन्होंने यह भी बताया कि एक बार समाचार वाचन के समय उन्होंने भी यह गलती कर दी थी और सालिम अली ने खुद फोन कर उनसे अपने नाम का सही उच्चारण बताते हुए कहा था कि उनका नाम भ्रमवश लोग गलत बोल जाते हैं।
इसलिए दूरदर्शन की एंकर ने इतना बड़ा अपराध नहीं किया था, जिसके चलते उसकी रोजी-रोटी छीन ली जाती। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम दो बार गलत बोल चुके हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इसे भी इतना तूल देने की जरूरत नहीं है। कई बार नाम का गलत रूप जुबान पर चढ़ा होता है तो अनायास वही निकल जाता है। मेरी मां भी एक व्यक्ति गुलहसन का नाम कई बार सही करने के बाद भी ‘गुलबदन’ ही बोल देती हैं।
खैर, आजकल हवा में गांधीजी की गूंज खूब है, मगर यह कितनी विश्वसनीय है, इस पर अभी सवालिया निशान हैं। गांधी सिर्फ सफाई तक सीमित नहीं हैं। वे क्षमा, सहिष्णुता, कर्तव्यपालन और विरोधी स्वरों का पूरा सम्मान करने और सही पर गौर कर खुद को उसके अनुसार सदाशयतापूर्वक बदलने के भी प्रतीक हैं। मगर सफाई-कार्य की तस्वीरें प्रचारित करने वाले मंत्रियों अधिकारियों या कर्मचारियों का कामकाज क्या इन बातों पर खरा उतर रहा है? दूरदर्शन की महिला कर्मचारी की बर्खास्तगी से क्या संदेश निकला? इसी संदर्भ में आकाशवाणी से जुड़ी एक घटना याद आती है। कुछ समय पहले आकाशवाणी के अधिकारियों ने पैंतीस वर्ष और उससे ऊपर की उम्र के अस्थायी रेडियो जॉकी, यानी उद्घोषक को बाहर करने का एक आदेश जारी किया था। इस मसले पर हंगामा होने पर तब सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि वे नहीं मानते कि पैंतीस वर्ष बाद इंसान की आवाज बूढ़ी हो जाती है। इसके बाद अधिकारियों ने उस आदेश को रोक दिया।
मैंने अपने इर्द-गिर्द की इन घटनाओं का जिक्र किया। लेकिन इतना तय है कि गांधीजी के नाम पर कोई लोकप्रिय अभियान चलाने वाली सरकार या उसके अधिकारियों की कार्यप्रणाली यह नहीं हो सकती! या फिर क्या ऐसा है कि एक व्यक्ति गांधी की राह पर निकल पड़ा है और बाकी बस तमाशाई हैं? दरअसल, गांधी का नाम हर जगह इस्तेमाल करने की आपाधापी में कुछ भ्रामक और हास्यास्पद बातें भी हो जा रही हैं। मिसाल के तौर पर मौजूदा स्वच्छता अभियान को लेकर एक विज्ञापन रेडियो और टीवी पर आजकल आ रहा है। विज्ञापन में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध गीत ‘एकला चलो’ का मुखड़ा सुनाया जाता है और फिर कहा जाता है कि आइए गांधीजी के बताए रास्ते पर चलें। मगर रवींद्रनाथ ठाकुर का जिक्र उसमें कहीं भी नहीं होता। जाहिर है, यह विज्ञापन किसी अनभिज्ञ व्यक्ति को भ्रमित कर सकता है कि शायद यह गीत गांधीजी का है। इसके अलावा, यह विज्ञापन बनाने वालों के दिवालिएपन की ओर भी इशारा करता है। क्या उन्हें इस विज्ञापन में डालने के लिए गांधीजी की इतनी सारी उक्तियों में से कोई वाक्य नहीं मिला? और अगर यह गीत इतना ही जरूरी था तो रवींद्रनाथ ठाकुर को भी इस विज्ञापन में जगह दे देने पर क्या बिगड़ जाता?
जो हो, गांधी का नाम आज तक अक्सर सियासी कारणों से ही लिया जाता रहा है। आज भी उसे लिए जाने के कारण सियासी ही हैं। दिलचस्प यह है कि यह नाम वे ले रहे हैं जो कभी उसके अभ्यस्त नहीं रहे। सही है कि गांधी का नाम किसी की जागीर नहीं। लेकिन जो भी उनका नाम ले, वह उनके बताए रास्ते पर कुछ हद तक तो चल ले! इतना ही बहुत होगा!
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